धरना-उठाना,सँभालना-सहेजना,यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है,दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायें चार दफ़े, तो देखू। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मै ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी,खुद भूखी सो रही होगी;लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दोदो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।
भोला ने एक लोटा पानी चढाकर कहा-यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या,यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसीलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुंह नहीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? खरचा करना चाहते हो तो कमाओ;मगर कमाई तो किसी से न होगी। खरच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर वाजार जायगा, तो आधे पैसे गायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है,वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नही; लेकिन यह सब काम फरसत के है। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो,आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर;सानी-पानी मैं करूँ,गाय-भैस मै दुहूँ, दूध लेकर बाजार मै जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है,सोने की हँसिया,जिसे न उगलते बनता है,न निगलते। लड़की है,झुनिया,वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घरवर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दूमुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निवाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूंगा; मगर वह राजी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती है। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नही।
इन्ही दुखड़ों मे रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलजार। अधिकतर अहीर ही वसते थे।और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गाय-भैसें खड़ी सानी खा रही थी। ओसारे में एक बड़ा-सा तख्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें