पृष्ठ:गो-दान.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान ३०३

नाच रही है, मगर वह घबड़ाई नहीं है। उसे तैरना आता है। लड़कपन में इसी नदी में वह कितनी बार तर चुकी है। खड़े-खड़े नदी को पार भी कर चुकी है। फिर भी उसका कलेजा धक-धक् कर रहा है। मगर पानी कम होने लगा। अब कोई भय नहीं। उसने जल्दी-जल्दी नदी पार की और किनारे पहुँचकर अपने कपड़े का पानी निचोड़ा और शीत से काँपती आगे बढ़ी। चारों ओर सन्नाटा था। गीदड़ों की आवाज़ भी न मुनायी पड़ती थी; और सोना से मिलने की मधुर कल्पना उसे उड़ाये लिये जाती थी।

मगर उस गाँव में पहुँचकर उसे सोना के घर जाते हुए संकोच होने लगा। मथुरा क्या कहेगा? उसके घरवाले क्या कहेंगे ? सोना भी बिगड़ेगी कि इतनी रात गये तू क्यों आयी। देहातों में दिन-भर के थके-माँदे किसान सरेशाम ही से सो जाते हैं। सारे गाँव में सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बन्द थे। सिलिया किवाड़ न खुलवा सकी। लोग उसे इस भेस में देखकर क्या कहेंगे? वहीं द्वार पर अलाव में अभी आग चमक रही थी। सिलिया अपने कपड़े सेंकने लगी। सहसा किवाड़ खुला और मथुरा ने बाहर निकलकर पुकारा--अरे ! कौन बैटा है अलाव के पास ?

मिलिया ने जल्दी से अंचल सिर पर खींच लिया और समीप आकर बोली--मैं हूँ, सिलिया।

'सिलिया ! इतनी रात गये कैसे आयी। वहाँ तो सब कुशल है ?'

'हाँ, सब कुशल है। जी घवड़ा रहा था। सोचा, चलूँ, सबसे भेंट करती आऊँ। दिन को तो छुट्टी ही नहीं मिलती।'

'तो क्या नदी थहाकर आयी है ?'

'और कैसे आती। पानी कम न था।'

मथुरा उसे अन्दर ले गया। बरोठे में अँधेरा था। उसने सिलिया का हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। सिलिया ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और रोब से बोली--देखो मथुरा, छेड़ोगे तो मैं सोना से कह दूँगी। तुम मेरे छोटे बहनोई हो, यह समझ लो ! मालूम होता है, सोना से मन नहीं पटता।

मथुरा ने उसकी कमर में हाथ डालकर कहा--तुम बहुत निठुर हो सिल्लो ? इस बखत कौन देखता है।

'क्या मैं सोना से सुन्दर हूँ। अपने भाग नहीं बखानते हो कि ऐसी इन्दर की परी पा गये। अब भौंरा बनने का मन चला है। उससे कह दूंँ तो तुम्हारा मुँह न देखे।'

मथुरा लम्पट नहीं था। सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक्त अँधेरा और एकान्त और सिलिया का यौवन देखकर उसका मन चंचल हो उठा था। यह तम्बीह पाकर होश में आ गया। सिलिया को छोड़ता हुआ बोला--तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ सिल्लो, उससे न कहना। अभी जो सजा चाहो, दे लो।

सिल्लो को उस पर दया आ गयी। धीरे से उसके मुंँह पर चपत जमाकर बोली--इसकी सजा यही है कि फिर मुझसे सरारत न करना, न और किसी से करना, नहीं सोना तुम्हारे हाथ से निकल जायगी।