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३०४ गोदान

'मैं कसम खाता हूँ सिल्लो, अब कभी ऐसा न होगा।'

उसकी आवाज़ में याचना थी। सिल्लो का मन आन्दोलित होने लगा। उसकी दया सरस होने लगी।

'और जो करो ?'

'तो तुम जो चाहना करना।'

सिल्लो का मुंँह उसके मुंँह के पास आ गया था, और दोनों की साँस और आवाज़ और देह में कम्पन हो रहा था। सहसा सोना ने पुकारा--किससे बातें करते हो वहाँ ?

सिल्लो पीछे हट गयी। मथुरा आगे बढ़कर आँगन में आ गया और बोला--सिल्लो तुम्हारे गाँव से आयी है।

सिल्लो भी पीछे-पीछे आकर आँगन में खड़ी हो गयी। उसने देखा, सोना यहाँ कितने आराम से रहती है। ओसारी में खाट है। उस पर सुजनी का नर्म विस्तर विछा हुआ है; बिलकुल वैसा ही, जैसा मातादीन की चारपाई पर बिछा रहता था। तकिया भी है, लिहाफ भी है। खाट के नीचे लोटे में पानी रखा हुआ है। आँगन में ज्योत्स्ना ने आईना-सा विछा रखा है। एक कोने में तुलसी का चबूतरा है, दूसरी ओर जुआर के ठेठों के कई बोझ दीवार से लगाकर रखे हैं। बीच में पुआलों के गड्ढे हैं। समीप ही ओखल है, जिसके पास कूटा हुआ धान पड़ा हुआ है। खपरैल पर लौकी की बेल चढ़ी हुई है और कई लौकियाँ ऊपर चमक रही हैं। दूसरी ओर की ओसारी में एक गाय वॅधी हुई है। इस खण्ड में मथुरा और सोना सोते हैं। और लोग दूसरे खण्ड में होगे। सिलिया ने सोचा, सोना का जीवन कितना सुखी है। सोना उठकर आँगन में आ गयी थी; मगर सिल्लो से टूटकर गले नहीं मिली। सिल्लो ने समझा, शायद मथुरा के बड़े रहने के कारण सोना संकोच कर रही है। या कौन जाने उसे अब अभिमान हो गया हो-- सिल्लो चमारिन से गले मिलने में अपना अपमान समझती हो। उसका सारा उत्माह ठण्डा पड़ गया। इस मिलन से हर्ष के बदले उसे ईर्ष्या हुई। सोना का रंग कितना खुल गया है, और देह कैसी कंचन की तरह निखर आयी है। गठन भी सुडौल हो गया है। मुख पर गृहिणीत्व की गरिमा के साथ युवती की सहास छवि भी है। सिल्लो एक क्षण के लिए जैसे मन्त्र-मुग्ध-सी खड़ी ताकती रह गयी। यह वही सोना है, जो मूखी-सी देह लिये, झोंटे खोले इधर-उधर दौड़ा करती थी। महीनों सिर में तेल न पड़ता था। फटे चिथड़े लपेटे फिरती थी। आज अपने घर की रानी है। गले में हँसुली और हुमेल है, कानों में करनफूल और सोने की बालियाँ, हाथों में चाँदी के चूड़े और कंगन। आँखों में काजल है, माँग में सेंदुर। सिलिया के जीवन का स्वर्ग यहीं था, और सोना को वहाँ देखकर वह प्रसन्न न हुई। इसे कितना घमण्ड हो गया है। कहाँ सिलिया के गले में वाँहें डाले घास छीलने जाती थी, और आज सीधे ताकती भी नहीं। उसने सोचा था, सोना उसके गले लिपटकर ज़रा-सा रोयेगी, उसे आदर से बैठायेगी, उसे खाना खिलायेगी; और गाँव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नये जीवन