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पृष्ठ:गो-दान.djvu/३११

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गोदान ३१३

आबाद करता है और उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। मेहता जी इस समय इन गॅवारों के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों है। वह इस सत्य से आँखें मिलाने का साहस न कर सकते थे कि इनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काश, ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते, तो यों न ठुकराये जाते। देश में कुछ भी हो, क्रान्ति ही क्यों न आ जाय, इनसे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आये, उसके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गयी है. जिसे कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश होकर अब अपने अन्दर ही टाँगें तोड़कर बैठ गयी है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गयी है।

सन्ध्या हो गयी थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर रहे थे, वे भी दौड़े चले आ रहे थे। उसी समय मेहता ने मालती को गाँव की कई औरतों के साथ इस तरह तल्लीन होकर एक बच्चे को गोद में लिए देखा, मानो वह भी उन्ही में से एक है। मेहता का हृदय आनन्द से गदगद हो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मेहता पर अर्पण कर दिया था। इस विषय में मेहता को अब कोई सन्देह न था; मगर अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह उत्कट भावना जाग्रत न हुई थी, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए हास्य-जनक था। मालती बिना बुलाये मेहमान की भॉनि उनके द्वार पर आकर खड़ी हो गयी थी, और मेहता ने उसका स्वागत किया था। इसमें प्रेम का भाव न था, केवल पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती है कि उन पर अपनी कृपा-दृष्टि फेरे, तो मेहता उसकी इस कृपा को अग्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ ही वह मालती को गोविन्दी के रास्ते से हटा देना चाहते थे और वह जानने थे, मालती जब तक आगे अपना पाँव न जमा लेगी, वह पिछला पाँव न उठायेगी। वह जानते थे, मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का परिचय दे रहे हैं। इसके लिए उनकी आत्मा बराबर उन्हें धिक्कारती रही थी; मगर ज्यों-ज्यों वह मालती को निकट से देखते थे, उनके मन में आकर्षण बढ़ता जाता था। रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। यह गुण का आकर्षण था। यह वह जानते थे, जिसे सच्चा प्रेम कह सकते है, केवल एक बन्धन में वॅध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आमक्ति-मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं। मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़ेगा, उसमें खरादे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर तो खराद पर चढ़कर सुन्दर मूर्तियाँ नहीं बन जाते। इतने दिनों में मालती ने उनके हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी रश्मियाँ डाली थीं; पर अभी तक वे केन्द्रित होकर उस ज्वाला के रूप में न फूट पड़ी थीं, जिससे उनका सारा अन्तस्तल प्रज्वलित हो जाता। आज मालती ने ग्रामीणों में मिलकर और सारे