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३१४ गोदान

भेद-भावों को मिटाकर इन रश्मियों को मानो केन्द्रित कर दिया। और आज पहली बार मेहता को मालती से एकात्मता का अनुभव हुआ। ज्यों ही मालती गाँव का चक्कर लगाकर लौटी, उन्होंने उसे साथ लेकर नदी की ओर प्रस्थान किया। रात यहीं काटने का निश्चय हो गया। मालती का कलेजा आज न जाने क्यों धक्-धक् करने लगा। मेहता के मुख पर आज उसे एक विचित्र ज्योति और इच्छा झलकती हुई नज़र आयी।

नदी के किनारे चाँदी का फर्श बिछा हुआ था और नदी रत्न-जटित आभूषण पहने मीठे स्वरों में गाती चाँद को और तारों को और सिर झुकाये नींद में माते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही थी। मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से जैसे मस्त हो गये। जैसे उनका बालपन अपनी सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो। बालू पर कई कुलाटें मारीं। फिर दौड़े हुए नदी में जाकर घुटने तक पानी में खड़े हो गये।

मालती ने कहा--पानी में न खड़े हो। कहीं ठंड न लग जाय।

मेहता ने पानी उछालकर कहा--मेरा तो जी चाहता है, नदी के उस पार तैरकर चला जाऊँ।

'नहीं-नहीं, पानी से निकल आओ। मैं न जाने दूंँगी।'

'तुम मेरे साथ न चलोगी, उस सूनी बस्ती में जहाँ स्वप्नों का राज्य है।'

'मुझे तो तैरना नहीं आता।'

'अच्छा, आओ, एक नाव बनायें, और उस पर बैठकर चलें।'

वह बाहर निकल आये। आस-पास बड़ी दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मेहता ने जेब से चाकू निकाला, और बहुत-सी टहनियाँ काटकर जमा की। करार पर सरपत के जूट खड़े थे। ऊपर चढ़कर सरपत का एक गट्ठा काट लाये और वहीं बाल के फर्श पर बैठकर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्गारोहण की तैयारी कर रहे हैं। कई बार उँगलियाँ चिर गयीं, खून निकला। मालती बिगड़ रही थी, बार-बार गाँव लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थी; पर उन्हें कोई परवाह न थी। वही बालकों का-सा उल्लास था, वही अल्हड़पन, वही हठ। दर्शन और विज्ञान सभी इम प्रवाह में बह गये थे।

रस्सी तैयार हो गयी। झाऊ का बड़ा-सा तख्त बन गया, टहनियाँ दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी गयी थीं। उसके छिद्रों में झाऊ की टहनियाँ भर दी गयीं, जिससे पानी ऊपर न आये। नौका तैयार हो गयी। रात और भी स्वप्निल हो गयी थी।

मेहता ने नौका को पानी में डालकर मालती का हाथ पकड़कर कहा--आओ, बैठो।

मालती ने सशंक होकर कहा--दो आदमियों का बोझ सँभाल लेगी ?

मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा--जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर रहे हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है मालती ? क्या डर रही हो?

'डर किस बात का जब तुम साथ हो।'

'सच कहती हो?'