पृष्ठ:गो-दान.djvu/३२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान ३२५

तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिये कमरे में दाखिल हुए और ज़मीन पर झुककर सलाम करते हुए बोले--मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गये ! हुजूर का मिज़ाज तो अच्छा है।

इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल भूलकर, राय साहब का यशोगान आरम्भ किया--ऐसी होम-मेम्बरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिये हजर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।

राय साहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहनेवाला, पहले सिरे का बेवफ़ा और निर्लज्ज; मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आयी। पूछा--आजकल आप क्या कर रहे हैं ?

कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाज़िर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निन्दा करने लगे। मुझसे न मुना गया। मैंने कहा, बस कीजिए महाराज, राय साहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निन्दा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गये। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। मैंने साफ़ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखायें; पर राय माहब की जो इज्जत है; वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाट से नहीं होती, लियाक़त से होती है। आप में जो लियाक़त है वह तो दुनिया जानती है।

राय साहब ने अभिनय किया--आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।

तंखा ने अकड़कर कहा--मैं तो हुजूर साफ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुग। जब हुजूर के क़दमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते है। जब देखिए हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-मारी मजदूरी साफ़ डकार गये। देना तो जानते नही हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते है कि कुछ न पूछिए। किसी की आवरू सलामत नही। दिन दहाड़े औरतों को...

कार की आवाज़ आयी और राजा सूर्यप्रतापसिंह उतरे। राय साहब ने कमरे से निकलकर उनका स्वागत किया और इस सम्मान के बोझ से नत होकर बोले--मैं तो आपकी सेवा में आनेवाला ही था।

यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य !

मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गयी है ? उन्होंने राय साहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था; मगर नहीं, राजा साहव यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गये हों, मगर दिलों में जो जलन है वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझनेवाली नहीं।