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पृष्ठ:गो-दान.djvu/३३३

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गोदान ३३५

'उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता।'

'क्यों?'

'कौन लिखे ? बोझ-सा लगता है।'

'और यह पोथे कैसे लिख डालते हो?'

'उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। क़लम लेकर बैठ जाता हूँ। हर वक्त खर्च का खाता तो खोलकर नहीं बैठता।'

'तो रुपए कैसे अदा करोगे?'

'किसी से क़र्ज़ ले लूँगा। तुम्हारे पास हों तो दे दो।'

'मैं तो एक ही शर्त पर दे सकती हूँ। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आये और खर्च भी मेरे हाथ से हो।'

मेहता प्रसन्न होकर बोले--वाह, अगर यह भार ले लो, तो क्या कहना; मूसलों ढोल बजाऊँ।

मालती ने डिग्री के रुपए चुका दिये और दूसरे ही दिन मेहता को वह बॅगला खाली करने पर मजबूर किया। अपने बॅगले में उसने उनके लिए दो बड़े-बड़े कमरे दे दिये। उनके भोजन आदि का प्रबन्ध भी अपनी ही ग हस्थी में कर दिया। मेहता के पास और सामान तो ज्यादा न था; मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गये। अपना बग़ीचा छोड़ने का उन्हें ज़रूर क़लक़ हुआ; लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल-पत्तियाँ चाहें लगायें।

मेहता तो निश्चिन्त हो गये; लेकिन मालती को उनकी आय-व्यय पर नियन्त्रण करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखा, आय तो एक हजार से ज्यादा है; मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस-पच्चीस लड़के उन्हीं से वजीफा पाकर विद्यालय में पढ़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस खर्च में कैसे कमी करे, यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़ा जायगा, सारा अपयश उसी के हिसे पड़ेगा। कभी मेहता पर झुंँझलाती, कभी अपने ऊपर, कभी प्रार्थियों के ऊपर, जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते जरा भी न सकुचाते थे। यह देखकर और भी झुंँझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया।

मेहता ने उसका आक्षेप सुनकर निश्चिन्त भाव से कहा--तुम्हें अस्नियार है, जिसे चाहे दो, चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। हाँ, जबाव भी तुम्ही को देना पड़ेगा।

मालती ने चिढ़कर कहा-- हाँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे सिर मढ़ो। मैं नहीं समझती, तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य-जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा; बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है।