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३३६ गोदान

मेहता ने स्वीकार किया--मेरे भी यही खयाल हैं।

'तुम्हारा यह खयाल नहीं है।'

'नहीं मालती, मैं सच कहता हूँ।'

'तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्यों ?'

मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ जवाब दिया, किसी से मजबूरी जताई, किसी की फ़ज़ीहत की।

मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे-धीरे ठीक हो गया; मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ की बचत दिखायी, तब वह उससे कुछ बोले नहीं; मगर उनकी दृष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक्-बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे।

जिस दिन मेहता की अचकनें बन कर आयीं और नयी घड़ी आयी, वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म-सेवा मे बड़ा उनकी नज़र में दूसरा अपराध न था।

मगर रहस्य की बात यह थी कि मालती उनको तो लेग्वे-ड्योढ़े में कसकर बाँधना चाहती थी। उनके धन-दान के द्वार बन्द कर देना चाहती थी; पर खुद जीवन-दान देने में अपने समय और सदाशयता को दोनों हाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर तो वह बिना फ़ीस लिये न जाती थी, लेकिन ग़रीबों को मुफ्त देखती थी, मुफ्त दवा भी देती थी। दोनों में अन्तर इतना ही था, कि मालती घर की भी थी और बाहर की भी; मेहता केवल बाहर के थे, घर उनके लिए न था। निजत्व दोनों मिटाना चाहते थे। मेहता का रास्ता साफ था। उन पर अपनी ज़ात के सिवा और कोई ज़िम्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कठिन था, उस पर दायित्व था, बन्धन था जिसे वह तोड़ न सकती थी, न तोड़ना चाहती थी। उस बन्धन में ही उसे जीवन की प्रेरणा मिलती थी। उमे अब मेहता को समीप से देखकर यह अनुभव हो रहा था कि वह खुले जंगल में विचरनेवाले जीव को पिंजरे में बन्द नहीं कर सकती। और बन्द कर देगी, तो वह काटने और नोचने दौड़ेगा। पिंजरे में सब तरह का सुख मिलने पर भी उसके प्राण सदैव जंगल के लिए ही तड़पते रहेंगे। मेहता के लिए घरवारी दुनिया एक अनजानी दुनिया थी, जिसकी रीति-नीति से वह परिचित न थे।

उन्होंने संसार को बाहर से देखा था और उसे मक्र और फरेब से ही भरा समझते थे। जिधर देखते थे, उधर ही बुराइयाँ नज़र आती थीं; मगर समाज में जब गहराई में जाकर देखा, तो उन्हें मालूम हुआ कि इन बुराइयों के नीचे त्याग भी है, प्रेम भी है, साहस भी है, धैर्य भी है। मगर यह भी देखा कि वह विभूतियाँ हैं तो ज़रूर, पर दुर्लभ हैं, और इस शंका और संदेह में जब मालती का अन्धकार से निकलता हुआ देवी-रूप उन्हें नज़र आया, तब वह उसकी ओर उतावलेपन के साथ, सारा धैर्य खोकर टूटे और चाहा कि उसे ऐसे जतन से छिपाकर रखें कि किसी दूसरे की आँख भी उस पर न पड़े। यह ध्यान न रहा कि यह मोह ही विनाश की जड़ है। प्रेम-जैसी निर्मम वस्तु क्या