गोदान | ३४९ |
और किसी ने कुछ कहा भी नहीं; बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की. तारीफ़ की।
होरी ने कहा--यही मरद का घरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना !
धनिया ने आँखें नचाकर कहा--मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है ? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया ब्राह्मणी हो गयी थी?
एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गयी थी। पूर्णमासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिये थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गयी और दर्दभरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दूध से भीग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनन्द लेने लगी।
सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला--कब तक रोये जायगी सिलिया ! रोने से वह फिर तो न आ जायगा। और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।
सिलिया के कण्ठ में आये हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गये। आवाज़ सँभालकर बोली--तुम आज इधर कैसे आ गये?
मातादीन कातर होकर बोला--इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।
'तुम तो उसे खेला भी न पाये।'
'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'
'सच?'
'सच!'
'मैं कहाँ थी?'
'तू बाजार गयी थी।
'तुम्हारी गोद में रोया नहीं ?'
'नहीं सिलिया, हँसता था।
'सच?'
'सच!'
'बस एक ही दिन खेलाया?'
'हाँ एक ही दिन; मगर देखने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'
'तुम्हीं को पड़ा था।
'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'
सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला।