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३५० गोदान

सिलिया ने कहा--मैं तो अब घनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

“धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'

  • सच ?'

"हाँ सच। जव मिलती थी समझाने लगती थी।'

गाँव के समीप आकर सिलिया ने कहा--अच्छा, अब इधर से अपने घर चले जाओ। कहीं पण्डित देख न लें।

मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा--मैं अब किसी से नहीं डरता।

'घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे?'

'मैंने अपना घर बना लिया है।'

'सच?'

'हाँ, सच।'

'कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।

'चल तो दिखाता है।'

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला--यही हमारा घर है।

सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दुःख भरे स्वर में कहा--यह तो सिलिया चमारिन का घर है।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा--यह मेरी देवी का मंदिर है।

सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली--मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँडे़लकर चले जाओगे।

मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कम्पित स्वर में कहा--नहीं सिलिया, जब तक प्राण है, तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूंँगा।

'झूठ कहते हो।'

'नहीं, तेरे चरण छूकर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।'

'तुमसे किसने कहा ?'

'भुनेमरी आप ही कहता था।'

'सच ?'

'हाँ, सच।'

सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वही सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे गे रही थी और उसी के ग टोनीन टी के नाशी पोटे