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पृष्ठ:गो-दान.djvu/३६१

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गोदान ३६३

गया और पांँच साल पागल-खाने में रहा। आज वहाँ से निकले छः महीने हुए। मांँगता-खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी। संसार को कौन मुंँह दिखाऊँगा। आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को.......

होरी ने बात काटी--तुम नाहक भागे। अरे, दारोगा को दस-पाँच देकर मामला रफे-दफे करा दिया जाता और होता क्या ?

'तुमसे जीते-जी उरिन न हूँगा दादा।'

'मैं कोई गैर थोड़े हूँ भैया।'

होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएँ मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता है, जीवन संग्राम में वह हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं। इन्हीं हारों में उसकी विजय है। उसके टूटे-फूटे अस्त्र उसकी विजय पताकाएँ हैं। उसकी छाती फूल उठी है, मुख पर तेज आ गया है। हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान् हो गयी है। उसके बखार में सौ-दो-सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हाँड़ी में हज़ार-पाँच सौ गड़े होते, पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?

हीरा ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा--तुम भी तो बहुत दुबले हो गये दादा !

होरी ने हँसकर कहा--तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैं ? मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन का सोच होता है, न इज्जत का। इस जमाने में मोटा होना बेहयाई है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसे मोटेपन में क्या सुख ? सुख तो जब है, कि सभी मोटे हों। सोभा से भेंट हुई ?

'उससे तो रात ही भेंट हो गयी थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाये बैठे हो। उसने तो खेत-बारी सब बेच-बाच डाली और अब भगवान ही जाने उसका निवाह कैसे होगा ?'

आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी। रात की थकान दूर न हो पाई थी; पर उसके क़ंदम तेज़ थे और चाल में निर्द्वन्द्वता की अकड़ थी।

आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी। उसके पाँव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया, न चबेना। उसी थकन में अपना अँगोछा बिछाकर एक पेड़ के नीचे सो रहा; मगर प्यास के गरे कण्ठ सूखा जाता है। खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की; लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी। न रहा गया। एक मजदूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठकर एक लोटा पानी खींचकर पिया और फिर आकर लेट रहा; मगर आधा घण्टे में उसे कै हो गयी और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी।