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पृष्ठ:गो-दान.djvu/४४

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गोदान
 


काम छोड़कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आयी है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे,पचास-साठ रुपए में लाये होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये,सौ के भी आये;लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगा। यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात् देवी का रूप है। दर्शकों,आलोचकों का तांता लगा हुआ था,और होरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र,इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था।

सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोलेकहाँ हो होरी,तनक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुन्दर है।

होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन, में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता हुआ,बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। ने महाराज गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा,सींगें देखीं,थन देखा,पुट्ठा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आंखों में जवानी की उमंग भरकर बोले--कोई दोष नहीं है बेटा,बालभौंरी,सब ठीक। भगवान् चाहेंगे,तो तुम्हारे भाग खुल जायँगे,ऐसे अच्छे लच्छन है कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।

होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा-सब आपका असीरवाद है,दादा!

{{Gap}]दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा-मेरा असीरबाद नहीं है बेटा,भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?

होरी ने बे-पर की उड़ाई।अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐमा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते है,जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं,तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग आसमान कर चढ़े। बोला-भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये,पूरे चौकस।

अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।

प्रसन्न होकर बोले--कोई हरज नहीं वेटा, कोई हरज नहीं। भगवान सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।

धनिया ने तुरन्त टोका-अरे नहीं महाराज,इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।

दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतर्कता को स्वीकार किया,मानो कह रहे हों,'गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है,उन्हें सीटने दो।'फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले-बाहर न बाँधना,इतना कहे देते हैं।