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गोदान
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हमने रुपए, दबा लिये, बीच खेत दबा लिये। डंके की चोट कहती हूँ,मैंने हंडेभर असफियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो,कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया,गौना नहीं किया?'

होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली,और गाय को खूटे से बाँधकर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा;पर वह वाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थामकर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेप्टा करके वह कोई नाटक नही दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को खूब जानता था। विगड़ती है,तो चण्डी हो जाती है। मारो,काटो,सुनेगी नहीं;लेकिन हीरा भी तो एक ही गुस्सेवर है। कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाय। नहीं,हीरा इतना मूरख नहीं है। मैने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता,तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोवर की याद आयी। वाहर लपककर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। गजव हो गया! गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया खून है,न जाने क्या कर बैठे;लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा,आप तो बोलते नहीं,जाकर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचण्ड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गयी। मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है,और लोग खाट से उठउठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं।

इतनी देर तक तो वह जब्त किये बैठा रहा। फिर न रह गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुंह पर बात न कहे,यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बॅधे-बँधे फिरो, सब की चिरौरी करो,अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय। उसका हीरा पर तो कोई बस न था;मगर धनिया को तो वह जबरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी,एक-दो दिन रूठी रहेगी,थाना-पुलिस की नौबत तो न आयेगी। जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपनी जीत हो रही है,तो बोलने की कोई जरूरत नहीं;हार हो रही है,तो तुरन्त कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गये हैं। पण्डित दातादीन,लाला पटेश्वरी,दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे,सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हलका हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किये देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती है।

वह गरज रही थी--तू हमें देखकर क्यों जलता है? हमें देखकर क्यों तेरी छाती