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गोदान
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तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हायहाय करने। मैने देखा,अब यह कुछ नहीं कर सकता,तो पीठ में दो लातें जमा दी और किवाड़ खोलकर भागी।'

गोबर ठट्ठा मारकर बोला-बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गयी होगी। मूंछे भी क्यों न उखाड़ लीं?

दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गयी। उसकी घरवाली आ गयी थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा-कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूं पण्डित!लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा-अच्छा थूककर चाटो,तो छोड़ दूं। सिर जमीन पर रगड़कर कहने लगा—अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गयी।'

गोबर को उसकी दया बुरी लगी-यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जाकर कह क्यों नहीं दिया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा दो,फिर देखना कैसी मरम्मत करता हूँ।

झुनिया ने उसके अर्द्ध-विकसित यौवन को देखकर कहा-तुम उसे न पाओगे। खासा देव है।मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं।

गोवर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता। डींग मारकर बोला-मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फौलाद की हड्डियाँ है। तीन सौ डण्ड रोज मारता हूँ। दूधघी नहीं मिलता,नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता।

यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी।

झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा-अच्छा,कभी दिखा दूंगी। लेकिन यहाँ तो सभी एक-से है,तुम किस-किस की मरम्मत करोगे। न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुन्दर औरत देखी और बस लगे घूरने,छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते है,ये तो निरे लम्पट होते हैं। फिर मै तो कोई सुन्दरी नहीं हूँ. . . .

गोबर ने आपत्ति की-तुम! तुम्हें देखकर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में विठा लें।

झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूसा जमाया-लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने। मै जैसी कुछ हूँ,वह मैं जानती हूँ। मगर इन लोगों को तो जवान मिल जाय। घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिए। गुन तो आदमी उसमे देखता है,जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ,आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस महल्ले में मेरी ससुराल है,उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस-बीस,पच्चीस-पच्चीस की होंगी। एक-से-एक सुन्दर। तीनों बड़े कालिज में पढ़ने जाती थीं। एक साइत कालिज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावें,हरमुनियाँ वह सब बजावें,नाचें वह, गावें वह;लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जाने,वह किसी मरद को पसन्द