पृष्ठ:गो-दान.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८ गोदान


रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी,केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे,तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाय। इसे आप कायरता कहेंगे,मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणीमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करेंऔर अधिक लोग पीसें और खपें, कभी सुखद नहीं हो सकती। पूँजी और शिक्षा,जिसे मैं पूंजी ही का एक रूप समझता हूँ,इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं,उनके अफसर और नियोजक दस-दस पाँच-पाँच हजार फटकारें,यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिता,कितना दुराचार,कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है,यह मैं खूब जानता हूँ;लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें,तो वागी समझे जायें,शान से न रहें,तो कंजूस कहलायें। प्रगति की जरा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं,और अफसरों के पास फरियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा,न पुरुपार्थ ही रह गया। बस,हमारी दशा उन बच्चों की-सी है,जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है,बाहर से मोटे,अन्दर से दुर्बल,सत्वहीन और मुहताज।

मेहता ने ताली वजाकर कहा-हियर,हियर!आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि है,काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती! खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते।

ओंकारनाथ बोले--अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही ज़रूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं,जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं?

राय साहब ने ऊपरी खेद,लेकिन भीतरी सन्तोष से सम्पादकजी को देखा और बोलेव्यक्तिगत वातों पर आलोचना न कीजिए सम्पादक जी!हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे है।

मिस्टर मेहता उसी ठण्ढे मन से बोले-नहीं-नहीं,मैं इसे बुरा नहीं समझता।