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गोदान
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दार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए,तो पहले आप खुद शुरू करें--काश्तकारों को बगैर नज़राने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बन्द कर दें,इज़ाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें,चरावर ज़मीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमदर्दी नहीं है,जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी,मगर जीवन है रईसों का-सा,उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।

राय साहब को आघात पहुंचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गये और सम्पादकजी के मुंह में जैसे कालिख लग गयी। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थे,पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे।

तंखा ने राय साहब की वकालत की-मैं समझता हूँ, राय साहब का अपने असामियों के माथ जितना अच्छा व्यवहार है,अगर सभी जमींदार वैसे ही हो जायें,तो यह प्रश्न ही न रहे।

मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमायी-मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है,मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारनेवाला जहर से मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ,हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें,नहीं हैं,तो बकना छोड़ दें। मैं नकली जिन्दगी का विरोधी हूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो,तो मत खाओ,यह तो मेरी समझ में आता है। लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना,यह मेरी समझ में नहीं आता। मै तो इसे कायरता भी कहता है और धर्तता भी जो वास्तव मे एक हैं।

राय साहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले-आपका विचार बिल्कुल ठीक है मेहताजी। आप जानते है,मै आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ,लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं,और आप एक पड़ाव को छोड़कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मै उस वातावरण में पला हूँ,जहाँ राजा ईश्वर है और जमींदार ईश्वर का मन्त्री। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ़ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकालकर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेचकर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे;मगर उसी वक्त तक,जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे,उन्हें अपना देवता समझकर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा का पालन उनका सनातनधर्म था,लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ,विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को ये