और क्या होगा। माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ; शादी मत करो, यह बन्धन है; बच्चे होंगे, यह मोहपाश है; मगर टैक्स क्यों देते हो? क़ानून भी तो बन्धन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो। जानते हो न कि का़नून की ज़रा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जायँगी। बस वही बन्धन तोड़ो, जिसमें अपनी भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बनाकर पीटो और तीसमारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों! वह फुंकार भी मारेगा, तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो। यह तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन है!
आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बन्दूक की आवाज़ से काँपते थे; लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रूक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विपय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाय। राय साहब अपने इस इलाके में बहुत दिनों से नहीं गये थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाके में आने-जाने से आदमियों से एक सम्बन्ध भी हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्ज़ा खुर्शेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैमे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। राय साहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोइया, कहार, खिदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया।
खन्ना ने कहा––आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?
मेहता ने जवाब दिया––भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर भी हम जिन्दा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायेंगी और हम लोग खायेंगे। देहातों में हाँडियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।
मालती ने गिला किया––क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर मे पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।
'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।'
मिर्ज़ा खुर्शेद बोले––अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इन्तज़ाम कर दूंगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँडी और बर्तन ढूंढना हिमाक़त है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए, और वहीं दरख्त के साये में खर्राटे लीजिए।
यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी खुद राय साहब। कोई बीस-पचीस मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया। दोनों तरफ़ ऊँची पर्वतमाला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नज़र आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पन्द कगार पर एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली