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गोदान
८९
 


बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर रह गये। जिस विचार से आये थे,उसमें जैसे पंचर हो गया;अगर जानते,मालती दग़ा देगी,तो घर लौट जाते;लेकिन राय साहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुर्शद और तंखा वच रहे। उनकी टोली वनी-बनायी थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ़ चल दीं।

कुछ दूर तक पथरीली पगडण्डी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा--तुम तो चले ही जाते हो। ज़रा दम ले लेने दो।

मेहता मुस्कराये--अभी तो हम एक मील भी नहीं आये। अभी से थक गयीं?

'थकीं नहीं;लेकिन क्यों न ज़रा दम ले लो।'

'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय,हमें आराम करने का अधिकार नहीं।मैं शिकार खेलने न आयी थी।'

मेहता ने अनजान बनकर कहा--अच्छा यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आयी थीं?

'अब तुमसे क्या बताऊँ।'

हिरनों का एक झुण्ड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गये और निशाना बाँधकर गोली चलायी। निशाना खाली गया। झुण्ड भाग निकला।

{{Gap{}मालती ने पूछा--अब?

'कुछ नहीं,चलो,फिर कोई शिकार मिलेगा।'

दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा--गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायें।

'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो,तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।'

'बड़े निर्दयी हो तुम,सच कहती हूँ।'

'जब तक कोई शिकार न मिल जाय,मैं बैठ नहीं सकता।'

'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है,तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी,तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना,तुम उस वक्त मझे अपने साथ ले जाते?'

मेहता ने कोई जवाब न दिया,मानो सुना ही नहीं।

दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप,दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी।

मेहता खड़े-खड़े बोले--अच्छी बात है,तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।

'मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे?'

'मैं जानता हूँ, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो।'

'कैसे जानते हो?'