पृष्ठ:गो-दान.djvu/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८२
गोदान
 

'नये युग की देवियों की यही सिफ़त है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं,उससे कधा मिलाकर चलना चाहती हैं।'

मालती ने झेंपते हुए कहा--तुम कोरे फ़िलसाफ़र हो मेहता,सच।

सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बन्दूक चलायी। मोर उड़ गया।

मालती प्रसन्न होकर बोली--बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।

मेहता ने बन्दूक कन्धे पर रखकर कहा--तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता,तो मैं तुम्हें दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा।

मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली--फ़िलासफ़रों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया। उस गरीब को मार ही डालते;मगर मैं यों न छोडू़ँगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।

मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े।

मालती सजलनेत्र होकर बोली--मैं कहती हूँ,मत जाओ। नहीं मै इसी चट्टान पर सिर पटक दूंँगी।

मेहता ने तेजी से क़दम बढ़ाये। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस क़दम निकल गये,तो झुंँझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनन्द न था।

समीप आकर बोली--मैं तुम्हें इतना पशु न समझती थी।

'मैं जो हिरन मारूँगा,उसकी खा़ल तुम्हें भेंट करूंँगा।'

'खाल जाय भाड़ में। मै अब तुमसे बात न करूंँगी।'

'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।'

एक चौड़ा नाला मुंँह फैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों से लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न पर आ पहुंँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं।

मालती ने प्रसन्न होकर कहा--अब तो लौटना पड़ा।

'क्यों?उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।'

'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।'

'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ।'

'हाँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है।'

मेहता ने पानी में क़दम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे,पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया।

मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली--पानी गहरा है। ठहर जाओ,मैं भी आती हूँ।