पृष्ठ:गो-दान.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८८
गोदान
 

युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा--तुम्हें कुछ नहीं करना है,जाकर बाई के पास बैठो,बेचारी बहुत भूखी है। दूध गरम हुआ जाता है,उसे पिला देना।

{{Gap))उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूंँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हें कनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी।

मालती ने पुकारा--तुम वहाँ क्या खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है,जैसे गिर जायगा।

मेहता ने आकर कहा--मालूम होता है,धूप लग गयी है।

'मैं क्या जानती थी,तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।'

'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?'

'क्या मै किसी मरीज़ को देखने आ रही थी,जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है,वह मेमरी में है। उफ़! सिर फटा जाता है!'

मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बन्द कर लीं।

युवती हाथों में आटा भरे,सिर के बाल बिखेरे,आँखें धुएँ से लाल और सजल,सारी देह पसीने में तर,जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ़ झलक रहा था,आकर खड़ी हो गयी और मालती को आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली--बाई को क्या हो गया है?

मेहता बोले--सिर में बड़ा दर्द है।

'पूरे सिर में है कि आधे में?'

'आधे में बतलाती है।'

'दाई ओर है,कि बाई ओर?'

'बाई ओर।'

'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा।'

'तुम इस धूप मे कहाँ जाओगी?'

युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गयी। कोई आधा घण्टे के बाद मेहता ने उसे एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-.सी लग रही थी। मन में सोचा--इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।

मालती ने आँखें खोलकर देखा--कहाँ गयी वह कलूटी। गज़ब की काली है,जैसे आबनूस का कुन्दा हो। इसे भेज दो,राय साहब से कह आये,कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।

'कोई दवा लेने गयी है। कहती है,उससे आधा-सीसी का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है!'

'इनकी दवाएँ इन्हीं को फ़ायदा करती हैं,मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लटू हो गये हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फ़रिश्ते!'