पृष्ठ:गो-दान.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
गोदान
८९
 

मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था।

'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जाती।'

'उसकी खूबियाँ उसे मुबारक,मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं है।'

'तुम्हारी इच्छा हो,तो मैं जाकर कार लाऊँ,यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी,मैं नहीं कह सकता।'

'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?'

'वह तो दवा लेने गयी है,फिर भोजन पकायेगी।'

'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।'

मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा--इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है,वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखे फूट जायें। मै अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी भर के मेहमान हैं,यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मै विश्व-बन्धुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ,केवल भाषण दे सकता हूँ;वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार कर सकती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो।

मालती ने उपहास भाव से कहा--बस-बस,वह देवी है। मैं मान गयी। उसके वक्ष में उभार है,नितम्बों में भारीपन है,देवी होने के लिए और क्या चाहिए।

मेहता तिलमिला उठे। तुरन्त उठे,कपड़े पहने जो सूख गये थे,बन्दूक उठायी और चलने को तैयार हुए।मालती ने फुंकार मारी--तुम नहीं जा सकते,मुझे अकेली छोड़कर।

'तब कौन जायगा?'

'वही तुम्हारी देवी।'

मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है,इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ।

वह दौड़ी हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती,हाथ में एक झाड़ लिये हुए। समीप जाकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली--मैं वह जड़ी खोज लायी। अभी घिसकर लगाती हूँ;लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो। मांँस तो पक गया होगा,मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंढा हो जाय,तो चले जाना।

उसने निस्संकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था,इस गॅवारिन के चरणों को चूम लें।

मालती ने कहा--अपनी दवाई रहने दो। नदी के किनारे,बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना,कार यहाँ लायें। दौड़ी हुई जा।