पृष्ठ:चंदायन.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

___ २९२ आजु राति जो चाँद न पाई । सारत बरु र मरउँ अदाई ॥५ ठाँउ ठाँउ जो लोरक पूछी, व मुना एक सिघ पाइ १६ अँघ सुरुज चाँद बस तिरिया, हूँढा देखि लइ जाइ ॥७ टिप्पणी--(१) सारस-सारत दविका अटूट प्रेरित है। एक मने पर दूसरा भी अपना प्राप दे देता है। ३७६ (मनेर १०५३) चूं शनोद लेरक कि दत्त पा दः र दरस्त (लोरस्ने सुना कि उसके हाय पाव को है) लोरक जो हँटा सुनि पावा । खोजय खोज जाइ नियरावा । नगर एक पडसत सुधि पाई । हूँटा संग तिरिया एक आई ॥२ चीर नगर तो चाहन लागा। फीक होत इँटा कर रागा ॥३ सुनतहि नाद लोर गा आई । देख चाँद मन रही लजाई ।।४ दौरि लोर हूँटा कर गहा । अरि भिसारि विह मारउँ काहा ॥५ धरी जटा ले चला राउ पहँ, तोहि फिराऊँ मरि १६ अँठि जटा लगि बहिरा दें, औहट मा चलि दूर ॥७ टिप्पणी- इस कडदरचा चोर्दक ,या' पे शान्दिन अर्थ पर आधारित है । पिसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। (१) सोजय सोजते हुए। (२) पदसत--प्रवेश करते ही। ३७७ (मनेर १० ) चरम दुगदा कदं व दीदने ,टा लोरकर (लोककी भोर हूँयका भाख फाटकर देखना ) ऑलि कादि के एंटा धापा । लोर कहा हौं पीन पे खावा ॥१ लोरक भागि चला जो डराई । मन्त्र हँटा मुहि भनम कराई ॥२