प्रति जोधपुर राज्य पुस्तकालयसे वासुदेवशरण अग्रवालको प्राप्त हुई है। किन्तु यह सूचना निराधार और नितान्त भ्रामक है । इस प्रकारकी कोई प्रति न तो जोधपुर पुस्तकालयमें है और न कहीं अन्यत्रसे वासुदेवारण अप्रवालको कोई पूरी प्रति प्राप्त हुई है। इसी प्रकार रावत सारस्वतने पूनाके डेकन कालेज पोस्ट ग्रेज्युएट रिसर्च इन्स्टीयमै चन्दायन के कुछ पृष्ठ होनेको यात कही है। उसमें भी कोई तथ्य राय कृष्णदासने लिखा है कि लाहौरवे प्रोफेसर शीरानीने चन्दायनको एक प्रति मास की थी, जिसरे २४ सचित्र पृष्ठ तो लाहौर मप्रहालयने ले लिये और दोप पजार विश्वविद्यालयमें चले गये। इस सूचनाका आधार क्या है, कहा नहीं जा सकता, किन्तु पजाब विश्वविद्यालय (लाहौर ) से पूछताछ करनेपर ज्ञात हुआ है कि उनके पुस्तकालयमें इस प्रकारका कोई अन्य नहीं है । परशुराम चतुर्वदीने असकरीये एक लेख के आधारपर यह सूचना दी है कि एक पूर्ण प्रतिका पता हिन्दी विद्यापीठ आगराधे उदयशंकर शास्त्रीको लगा है जो नागरी अधरोंमें लिखी गयो, किन्तु अधिक मूल्य माँगे जानेके कारण क्रय नहीं की जा सकी। उदयशंकर शास्त्रीको जिस प्रतिके अस्तित्वकी जानकारी रही है, वह वस्तुत: बीकानेरवाली ही प्रति है जिसका उल्लेख अलग कर चतुर्वेदीने एक अन्य प्रति होनेका भ्रम प्रस्तुत कर दिया है। ग्रन्थका आकार पूर्ण प्रति उपलब्ध न होने के कारण चन्दायन के आकारके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कुछ भी कहना कठिन है । हो, बीकानेर प्रतिके आधारपर यह अनुमान किया जा सकता है कि इस काव्यमें कमसे कम ४७३ कडवक होंगे। इस प्रतिमें आरम्भके ४३८ कडवक है और उसके बाद १३ पृय छोडकर पुम्पिका दी गयी है । यह बात इस ओर सरत करती है कि ग्रन्थका कुछ अश लिग्मनेसे रह गया है। उसे लिखने के लिए ही लिपिकारने पृष्ठ साल छोड दिये थे। अन्तका अश खण्डित है, इसका समर्थन रीलैण्डस प्रतिसे भी होता है। रीलैण्डस प्रतिमें बीकानेर प्रतिके अन्तिम कड़वक आगेक पर्याप्त अश उपलब्ध हैं। अस्तु, बीकाने प्रतिको पक्तियों की गणनारे आधार पर कहा जा सकता है कि उसरे १३ साली पृठौंपर ३५ कडवक लिखे जाते। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्यमें ४७३ कड़वक होने का अनुमान होता है। हमे उपलब्ध प्रतियों में रीलैण्डस प्रति सबसे बड़ी है। उसमें ३४९ कडवक है। अन्य प्रतियों में अधिकाश कडवक ऐसे है जो रीलैण्डस प्रतिगे उपलब्ध है। इस कारण १ भारतीय साहित्य, भागावर ,भक १, पृ. १८९। २ ललितकला, दिल्ली, भक १२, पृ. ७१। ३ पटना यूनिवमिरी जनल, १९६०, पृ. ६२ । ४ हिन्दीके सूफी प्रेमास्थान, पृ. २९।
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