पृष्ठ:चंदायन.djvu/४०

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२७ प्रतिसे प्राप्त हैं, पर वे अधूरे हैं); १२२, १५३; १८०; १८२; २८२ २८६; २९८; २९९, ३०२, ३०३, ३१०; ३२०, ३३७ ३४२ ( इनमेसे दो षडक्फ बम्बई प्रतिमें प्राप्त हैं, पर अन्य कडवकों के अभावमें उनका स्थान निश्चित नहीं किया जा सक्ता); ३४५; ३६२, ३६३, ३७८-३८८ ( इनमेंसे चार कडवक पंजाब प्रतिमे प्राप्त हैं, पर के अधूरे हैं। उनका स्थान निर्धारित नहीं किया जा सकता), ४१० और ४५४४७३ । लिपि हिन्दी विद्वानोंकी कुछ ऐसी धारणा बन गयी है कि मुसल्मान कवियों द्वारा रचे गये सभी हिन्दी प्रेमाख्यानक कायों की आदि प्रति नागरी लिपिमें लिखी गयी थी। इस कथनके समर्थनमें वे इन काव्योंकी विभिन्न प्रतियोमें पायी जानेवाली कतिपय ऐसी विकृतियों की सूची प्रस्तुत किया करते हैं जो उनकी दृष्टिम नागरी लिपिसे पारसी लिपिमें परिवर्तनसे ही आ सकती है। इन लोगों द्वारा उपस्थितकी जानेवाली पाठ विकृतियों के विवेचन का यह स्थान नहीं है। यहाँ यह कहना ही पर्यात होगा कि यदि उन्हें ध्यानपूर्वक देखा जाय तो यह समझते देर न लगेगी कि वे विकृतियाँ नागरी लिपिसे फारसी लिपिमें परिवर्तन करने से नहीं आयी हैं, वरन् सत्कालीन अरबी पारसी लिपि शैलीकी प्रवृत्तियोंसे अपरिचित लिपिकारों द्वारा लिपिबद्ध होने के कारण आयी हैं। यह सामान्य सूझ बूझकी बात है कि नागरी लिपिको मुसलमानी शासनकाल में कभी प्रश्रय प्राप्त नही हुआ । परिणामतः अभी पचास वर्ष पूर्वतक, अधिकाश कायस्थ परिवारोंका नागरी लिपिके साथ नामका भी सम्बन्ध न था। उनके घरों में रामायण ही नहीं, दुर्गा-पाठ और भगवद्गीताका भी पाठ उर्दू फारसीमें लिपी पापियोंसे होता था और वे शुद्ध उचारणके साथ उनका पाठ किया करते थे। इङ्गलैण्ड और मास के पुस्तकालयोंमें न केवल सूरसागर आदि धार्मिक ग्रन्यों की ही, घरन् हिन्दू वियोद्वारा रचित अनेक शृगार कायों, यया केशवदासकी रसिक प्रिया, बिहारी सतसई आदिकी भी पारसी लिपिम लिखो काफी प्राचीन प्रतियाँ सुरक्षित हैं। उन्हें देखते हुए यह कल्पना करना कि प्रेमाख्यानक काव्यों के रचयिता मुसलमानोने अपने याव्यकी आदि पति नागराक्षरों में लिखी होगी, नितान्त हास्यास्पद है। ये कवि न केवल स्वय मुसल्यान थे, वरन् उनके गुरु भी मुसलमान थे और उनके शिष्य भी मुसलमान ही थे। सूफी मतका हिन्दुओंमें प्रचार हुआ हो, इसका कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। अत. उनके ग्रन्ध अरजी पारसी के अतिरिक्त किसी अन्य लिपिम कदापि नहीं लिखे गये होंगे। ये काव्य मूलतः अरवी पारसी लिपिमें ही लिखे गये थे, यह उनकी उपलब्ध प्रतियोंसे भी सिद्ध होता है। अधिकाशतः अरबी-फारसी लिपिमै लिपी मिलती है और इन लिपियों में लिखी प्रतियाँ ही अधिक प्रमाणित हैं। यही नहीं, नागरी लिपिमें प्रात प्रतियों के पूर्वज भी अरबी-फारसी प्रतियाँ हो रही हैं, यह भी उनके परीक्षासे स्पष्ट प्रकट