पृष्ठ:चंदायन.djvu/४८१

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यार्तिक अन्यका कार्य समाप्त होनेके दिनसे इन पक्तियोंके लिसनेतक पूरे पौने दो बरस हो गये । इस लम्बी अवधि में एक और मुद्रणका कार्य भन्थर गतिसे होता रहा, दूसरी ओर प्रायसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक घटनाएँ घटां, फ देखते समय अनेक प्रकारचे विचार मनमे उठे, धारणाएँ बनी, नये तथ्य उपलब्ध हुए। उन्हें अगले सरकरणतक रोक रखना पाठकोके प्रति अन्याय होगा, यह छोचकर, जिन बातोंका समावेश भूप देसते समय यथास्थान हो सका, उन्हे यहाँ समाविष्ट करने की चेष्टा की गयी। जो बात रह गयीं, उनमसे आवश्यक बातोको यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । पाटकोसे अनुरोध है कि उन्हें यथोचित रूपमे ग्रहण करनेरी उदारता दिखायें। एक अनुभव इस ग्रन्थका सम्पादन कार्य करते समय हिन्दी साहित्य माने-जाने महा- रथियोकी व्यावहारिक शालीनताका जो अनुभव हुआ, उनकी चर्चा अनुशीलन- के प्रसगसे मेंने अन्यत्र की है। उसका अधिक निसरा रूप उसके बाद देखने- को मिला। ब्रिटिश म्यूजियमो आमन्त्रणपर लन्दन पहुँचने के बाद एक दिन में रीटेण्डस पुस्तकालयकी प्रतिको आँखों देसने मैनचेस्टर गया। यहां पुस्तकालयके हस्तलिसित अन्य विभागके एक अधिकारीने चन्दायकी चर्चा के बीच अचानक कुछ याद करते हुए पूछा- ___क्या आपके यहाँके (हिन्दीये ) साहित्यकारो और अध्याप”को ज्ञात है कि आपने इस ग्रन्थको ढूंढ निकाला है ? हॉ1-मैने कहा। क्या ये यह भी जानते है कि आप इसका सम्पादन कर रहे हैं ? तब तो उनमें आश्चर्यजनक अधैर्य और विवेकहीनता मरी है । और उनके पेशानीपर घुछ अजीब-सी घृणाकी रेखाएं उभर पडी। उनका आशय मैं समझ न सका। अचाक् उनको ओर देखता रह गया । और तब उन्होंने मेरी ओर एक पाइल बहा दी। उनमे ये हिन्दीके कतिपय विद्वान् अध्यापकोंके पत्र । उन पत्रोंमें उन्होने चन्दायनकी प्रतिक माइक्रोफिल्मकी माँग की थी। उस पाइल्म उनका उत्तर भी था। उन्होंने इन उतावले अनुमधि-