अपहृत कर ले जाती हुई अस्ति की गयी है। वर्तमान काव्यमे हम चाँदको भाग चलनेके लिए लोरकको प्रेरित करते पाते हैं। (३) रूप-गुण-जन्य आकर्पण-भारतीय प्रेमाख्यानोम पूर्वानुराग एक मुख्य अभिप्राय है। कथासरित्सागरमें नरवाहनदत्त तपसीने मुससे पपरसम्भव देश की राजकुमारी कर्परिकाका रूप गुण सुनकर उराकी ओर आकृष्ट होता है। इसी प्रकार मतिष्ठानका राजा पृथ्वीराज बौद्ध भिक्षुके मुसरो मुतिपुर द्वीपको रूपलता नामक कन्या या सोन्दर्य सुनकर उसपर मुग्ध हो जाता है | विरमाकदेर चरितमें पिम्म चन्द्रलेसाकी भासा सुन विरह व्यथासे व्याकुल हो उठता है। ठीक उसी प्रकार इस काव्यमे याजिरके मुखसे चाँदफी स्प प्रशसा मुनयर रूपचन्द व्याकुल हो उठता है और उसे मात करनेकी चेध करता है। (४) अकेले पाकर नायिकाका अपहरण-नायिकायो अपेली छोडवर पिसी कार्यसे नायकके चले जानेपर क्सिी अन्य व्यक्ति द्वारा उसका अपहरण अनेक भारतीय कथाओंमें पाया जाता है। रामायणमे रामके मृगके पीछे जानेपर रावण द्वारा सीताका अपहरण एक प्रसिद्ध घटना है। प्रस्तुत कायम रफके बाजार चले जानेपर मन्दिरमै अबेला पाकर दूंटा द्वारा सम्मोहनकर चन्दाका अपहरण ऐसी ही घटना है। (५) जुएमें पत्नीको दॉवपर लगा देना-जुए, पत्नीको दाँवपर लगा देना भी भारतीय साहित्यका एक जाना पहिचाना अभिप्राय है। पाण्डवो द्वारा द्रौपदीको दाँवपर हार जानेको क्या इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है। चन्दायन लोक कथात्मक रूपमे लोरक द्वारा चन्दाको जुएमे हारजानेका स्पष्ट उरलेप है। सम्भवत दाऊदने भी इसका उल्लेप अपने याव्यमे रिया है पर तत्सम्बन्धी अरा अनुपलब्ध होनेसे निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा बा सस्ता । (६) पत्नीके सतीत्वकी परीक्षा-पतिसे विलग रही पत्नी सतीत्यको परीक्षा रामायणकी एक प्रमुस घटना है। इस वाव्यमे भी लोक हरदीपाटनसे लौटकर मेनारे सतीत्यये परसने की चेश करता है। (७) प्रवासी पतिके विरहमें पत्नीका झरना-प्रवासी पतिरे रिहमें दग्ध पलियोंकी कथाएँ अपभ्रश साहित्यम प्रचुर मात्राम मिलती है। यथा-नेमिनाथ फागु, सन्देशरासक, बीसलदेव रास । मैनाका लोरको वियोगमें बिसूरना उसी कोटिका अभिप्राय है। वर्णनात्मिकता मौलाना दाऊदने चाँद और लोरकरे जीवन मे परित घटनाओंका जिस रूपमे वर्णन किया है, उससे लगता है कि उनका उद्देश्य चाँद और लोरकके चरितके माध्यमसे अपने समयरे सामन्तवादी जीवनका यथार्थ चित्रण करना हो रहा है। गोवरसे हरदीपाटन तक विस्तृत पाश्वमे लेक और जीवनया जो चित्र उन्होंने उपस्थित किया, उसमें कहीं भी आदर्शवी झलक दिखाई नहीं पड़ती।
पृष्ठ:चंदायन.djvu/७१
दिखावट