बाबू देवकीनन्दन खत्री की संक्षिप्त जीवनी
बाबू देवकीनन्दन खत्री का जन्म सन् 1861 में मुजफ्फरपुर में हुआ। (विक्रमी संवत् 1918, आषाढ़-कृष्ण सप्तमी, शनिवार) आपके पूर्वज पंजाब के निवासी थे। महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात्पं जाब में अराजकता-सी फैल गई थी जिसके फलस्वरूप आपके पूर्वज लाहौर छोड़ कर काशी चले आये।
आपकी माता पूसा (मुजफ्फरपुर) के जीवनलाल महता की पुत्री थीं। इस कारण आपके पिता लाला ईश्वर दयाल जी प्रायः वहीं रहा करते थे। बाबू देवकीनन्दन खत्री के बचपन का अधिकांश समय पूसा में ही बीता। वहीं आपने उर्दू-फारसी में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की। बाद में हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी शिक्षा आपने काशी में रहकर प्राप्त की।
गया जिले के टिकारी राज्य में आपके पिताजी के व्यावसायिक सम्बन्ध थे। इस कारण गया में आपने एक कोठी खोली जिसके प्रबन्धक देवकीनन्दन खत्री थे। गया का कारोबार अच्छा होने के कारण खत्री जी की अच्छी खासी आय थी। वहाँ मौजमस्ती में इन्होंने अपना समय बिताया। कुछ दिनों पीछे टिकारी राज्य नाबालिगी के कारण सरकारी प्रबन्ध में चला गया। इस कारण आपके पिताजी का सम्बन्ध भी राज्य से टूट गया और वे सपरिवार काशी चले गए। खत्रीजी की अवस्था उस समय चौबीस वर्ष की थी।
टिकारी राज्य में काशी-नरेश ईश्वरीप्रसादनारायण सिंह की बहिन का विवाह हुआ था। इसलिए काशी में भी खत्री जी, पुराने सम्बन्धों के कारण, काशिराज के कृपा पात्र हुए। आपने मुसाहिब बनकर दरवार में रहना उचित नहीं समझा, परन्तु चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका ले लिया। इन जंगलों में विभिन्न प्रकार की लकड़ी, गोंद तथा अन्य वस्तुओं की पैदावार से इन्हें अच्छी-खासी आमदनी होती थी। अपने कारोबार की सुचारु व्यवस्था के लिए आप स्वयं इन जंगलों में सब जगहों में घूमते-फिरते थे। इसी अवस्था में आपने इन जंगलों-पहाड़ों की भरपूर सैर की। इसी जमाने में आपका बीहड़ों, खोहों तथा प्राचीन अवशेषों से भी साक्षात्कार हुआ। आपने इन दर्शनीय स्थानों को बड़ी सावधानी से देखा-समझा, जो आगे आपके उपन्यासों की पृष्ठ-भूमि बना।
कुछ विशेष कारणों से इन जंगलों का ठेका खत्री जी को छोड़ना पड़ा और ये घर आ गये तथा काशी में रहने लगे। इन्हीं दिनों आपको कुछ लिखने की धुन समाई