पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/११०

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भाग गये थे और हुक्म के मुताबिक किसी ने भी उनको भागते समय नहीं रोका था। इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों लड़कों और ऐयारों के सिवाय सिर्फ थोड़े से फौजी अफसरों का डेरा इस महल में पड़ा हुआ है। ऐयारों में सिर्फ भैरोंसिंह और तारासिंह यहाँ मौजूद हैं, बाकी के कुल ऐयार चुनार लौटा दिये गये थे। शहर के इन्तजाम में सब से पहले यह किया गया कि चिट्ठी या अरजी डालने के लिए एक बगल छेद करके दो बड़े- बड़े सन्दूक राजभवन के फाटक के दोनों तरफ लटका दिये गये और मुनादी करवा दी गई कि जिसको अपना सुख-दुःख अर्ज करना हो दरबार में हाजिर होकर अर्ज किया करे और जो किसी कारण से हाजिर न हो सके वह अर्जी लिख कर इन्हीं सन्दूकों में डाल दिया करे। हुक्म था कि बारी-बारी से ये सन्दूक दिन-रात में छ: मर्तबा कुँअर आनन्दसिंह के सामने खोले जाया करें। इस इन्तजाम से गयाजी की रिआया बहुत प्रसन्न थी।

रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। एक सजे हुए कमरे में, जिसमें रोशनी अच्छी तरह हो रही है, छोटी सी खूबसूरत मसहरी पर जख्मी कुँअर इन्द्रजीतसिंह लेटे हुए हल्की दुलाई गर्दन तक ओढ़े हैं। आज कई दिनों बाद उन्हें होश आई है, इससे अचम्भे में आकर इस नये कमरे में चारों तरह निगाह दौड़ा कर अच्छी तरह देख रहे हैं। बगल में बायें हाथ का ढासना पलँगड़ी पर दिये हुए उनके पिता राजा वीरेन्द्रसिंह बैठे उनका मुँह देख रहे हैं, और कुछ पायताने की तरफ हट कर पाटी पकड़े कुँअर आनन्दसिंह बैठे बड़े भाई की तरफ देख रहे हैं। पायताने की तरफ पलँगड़ी के नीचे भैरोंसिंह और तारासिंह धीरे-धीरे तलवा साँस रहे हैं। कुँअर आनन्दसिंह के बगल में देवीसिंह बैठे हैं। उनके अलावे वैद्य जर्राह और बहुत से सिपाही नंगी तलवारें लिए पहरा दे रहे हैं।

थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रहा इसके बाद कुँअर इन्द्रजीत ने अपने पिता की तरफ देख कर पूछा––

इन्द्रजीतसिंह––यह कौन सी जगह है? यह किसका मकान है?

वीरेन्द्रसिंह––यह चन्द्रदत्त की राजधानी गयाजी है। ईश्वर की कृपा से आज यह हमारे कब्जे में आ गई है। मकान भी चन्द्रदत्त ही के रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दखल जमा चुके थे जब तुम यहाँ पहुँचाये गये।

यह सुन इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समाँ उनकी आँखों के आगे घूम गया और वे किशोरी को याद कर अफसोस करने लगे। इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ और किशोरी पर क्या बीती इसके जानने के लिए दिल बैचेन था मगर पिता का लिहाज कर भैरोंसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ ऊँची साँस लेकर रह गये मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गये और बिना पूछे ही कुछ कहने मौका समझ कर बोले, "राजगृह में लड़ाई के समय जितने आदमी आपके साथ थे ईश्वर की कृपा से सब बच गये और अपने ठिकाने पर हैं, केवल आप ही को इतना कष्ट भोगना पड़ा।"

देवीसिंह के इतना कहने से इन्द्रजीतसिंह की बेचैनी बिल्कुल ही जाती तो नहीं