पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/११४

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तक देख सकते थे कुछ भी न देखा, लाचार धीरे से उनको करवट बदलनी पड़ी और तब मालूम हुआ कि इस कमरे में क्या आश्चर्य की बात दिखाई दे रही है।

अब कोठरी के दोनों पल्ले खुल गये और वह हसीन औरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखाई देने लगी क्योंकि उसके तमाम बदन पर बखूबी रोशनी पड़ रही थी। वह औरत नखशिख से ऐसी दुरुस्त थी कि उसकी तरफ चारों की टकटकी बँध गयी। बेशकीमत सफेद साड़ी और जड़ाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मालूम हो रही थी, जेवरों में सिर्फ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुर्खि उसके गोरे रंग पर पड़कर उसके हुस्न को हद से ज्यादा रौनक दे रही थी। उसकी पेशानी (माथे) पर एक दाग था जिसके देखने से विश्वास होता था कि बेशक इसने कभी तलवार या किसी हर्वे की चोट खायी है। यह दो अंगुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था। उसे देख ये चारों आदमी यही सोचते होंगे कि इससे बढ़कर खूबसूरत रम्भा और उर्वशी अप्सरा भी न होंगी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह तो किशोरी पर मोहित हो रहे थे, उसको तस्वीर इनके दिल में खिच रही थी, उन पर चाहे इसके हुस्न ने ज्यादा असर न किया हो, मगर आनन्दसिंह की क्या हालत हो गयी यह वे ही जानते होंगे। बहुत बचाते रहने पर भी ठण्डी साँसें उनसे न रुक सकी जिससे हम भी कह सकते हैं कि उनके दिल ने उनकी ठण्डी साँसों के साथ ही बाहर, निकलकर कह दिया कि अब हम तुम्हारे कब्जे में नहीं हैं।

कुँअर आनन्दसिंह अपने को सँभाल न सके, उठ बैठे और उधर ही देखने लगे जिधर वह औरत किवाड़ का पल्ला थामे खड़ी थी। उनकी यह हालत देख तीनों आदमियों को विश्वास हो गया कि वह भाग जायेगी, मगर नहीं, वह इनको उठकर बैठते देख जरा भी न हिचकी, ज्यों की त्यों खड़ी रही, बल्कि इनकी तरफ देख उसने जरा-सा हँस दिया, जिससे ये और भी बेचैन हो गये।

कुँअर आनन्दसिंह यह सोचकर कि उस कोठरी में किसी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए दूसरा दरवाजा नहीं है मसहरी पर से उठ खड़े हुए और उस औरत की तरफ चले। इनको अपनी तरफ आते देख वह औरत कोठरी में चली गयी और फुर्ती से उसका दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तबीयत चाहे दुरुस्त हो गयी हो मगर कमजोरी अभी तक मौजूद है, बल्कि सब जख्म भी अभी तक कुछ गीले हैं, इसलिए अभी घूमने-फिरने लायक नहीं हुए। उस परीजमाल को भीतर से किवाड़ बन्द कर लेते देख सब उठ खड़े हुए, कुँअर इन्द्रजीतसिंह भी तकिए का सहारा लेकर बैठ गये और बोले, "इस कोठरी में किसी तरफ निकल जाने का रास्ता तो नहीं है?"

भैरोंसिंह––जी नहीं।

आनन्दसिंह––(किवाड़ में धक्का देकर) इसे खोलना चाहिए।

तारासिंह––मुश्किल तो कुछ नहीं, (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) क्या हुक्म होता है?