इन्द्रजीतसिंह––जब इस कोठरी में दूसरी तरफ निकल जाने का रास्ता ही नहीं है तो जल्दी क्यों करते हो?
इन्द्रजीतसिंह के इतना कहते ही आनन्दसिंह वहाँ से हटे और अपने भाई के पास आकर बैठ गये। भैरोंसिंह और तारासिंह भी पास आकर बैठ गये और यों बातचीत होने लगी––
इन्द्रजीतसिंह––(भैरोंसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) तुममें से कोई जागता भी रहा या दोनों सो गए थे?
भैरोंसिंह––नहीं सो क्यों जायेंगे? हम लोग बारी-बारी से बराबर जागते और महीन चादर से मुँह ढाँके दरवाजे की तरफ देखते रहे।
इन्द्रजीतसिंह––तो क्या इसी दरवाजे में से इस औरत को आते देखा था?
आनन्दसिंह––बेशक इसी तरफ से आयी होगी!
तारासिंह––जी नहीं, यही तो ताज्जुब है कि कमरे के दरवाजे ज्यों के त्यों भिड़े रह गये और यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और वह नजर आयी।
इन्द्रजीतसिंह––यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस कोठरी में और कोई दरवाजा नहीं है?
भैरोंसिंह––जी हाँ, अच्छी तरह जानते हैं, भीतर कोई दरवाजा नहीं है।
तारासिंह––क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुडैल थी।
आनन्दसिंह––राम-राम, यह भी कोई बात है!
इन्द्रजीतसिंह––खैर, जो हो, मेरी राय यही है कि पिताजी के आने तक कोठरी का दरवाजा न खोला जाय।
आनन्दसिंह––जो हुक्म, मगर मैं तो यह चाहता था कि पिताजी के आने तक दरवाजा खोलकर सब-कुछ दरियाफ्त कर लिया जाता।
इन्द्रजीतसिंह––खैर खोलो।
हुक्म पाते ही कुँअर आनन्दसिंह उठ खड़े हुए, खूँटी से लटकती हुई एक भुजाली उतार ली और उस दरवाजे के पास जा एक-एक हाथ दोनों कुलाबों पर मारा जिससे कुलाबे कट गये। तारासिंह ने दोनों पल्ले उतारकर अलग रख दिए। भैरोंसिंह ने एक वलता हुआ शमादान उठा लिया और चारों आदमी उस कोठरी के अन्दर गए मगर वहाँ एक चूहे का बच्चा भी नजर न आया।
इस कोठरी में तीन तरफ मजबूत दीवारें थीं और एक तरफ वही दरवाजा था जिसका कुलाबा काट ये लोग अन्दर आए थे, हाँ, सामने की तरफ वाली अर्थात् बिचली दीवार में काठ की एक आलमारी जड़ी हुई थी। इन लोगों का ध्यान उस आलमारी पर गया और सोचने लगे कि शायद यह आलमारी इस ढंग की हो जो दरवाजे का काम देती हो और इसी राह से वह औरत आयी हो, मगर उन लोगों का यह खयाल भी तुरन्त ही जाता रहा और विश्वास हो गया कि यह आलमारी किसी तरह दरवाजा नहीं हो सकती और न इस राह से वह औरत आई ही होगी, क्योंकि उस आलमारी में भैरोंसिंह ने अपने हाथ से कुछ जरूरी असबाब रखकर ताला लगा दिया था जो अभी