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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१२१

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सिंह, भैरोंसिंह और तारासिंह को उनके जी का पता कुछ-कुछ लग चुका था मगर जब तक उसकी इज्जत-आबरू और जात-पात की खबर के साथ-साथ यह भी मालूम न हो जाय कि वह दोस्त है या दुश्मन, तब तक कुछ कहना-सुनना या समझाना मुनासिब नहीं समझते थे।

राजा वीरेन्द्रसिंह को अब यह चिन्ता हुई कि जिस तरह वह औरत इस घर में आ पहुँची, कहीं डाकू लोग भी आकर लड़कों को दुख न दें और फसाद न मचावें। उन्होंने पहरे वगैरह का अच्छी तरह इन्तजाम किया और यह सोच कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह अभी तन्दुरुस्त नहीं हुए हैं कमजोरी बनी हुई है और किसी तरहे लड़-भिड़ नहीं सकते, इनको अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं, अपने सोने का इन्तजाम भी उसी कमरे में किया और साथ ही एक नया तथा विचित्र तमाशा देखा।

हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कमरे के दोनों तरफ दो कोठरियाँ हैं, एक में सन्ध्यापूजन का सामान है और दूसरी वही विचित्र कोठरी है जिसमें से वह औरत पैदा हुई थी। सन्ध्या-पूजा वाली कोठरी में बाहर से ताला बन्द कर दिया गया और दूसरी कोठरी का कुलाबा वगैरह दुरुस्त करके बिना बाहर ताला लगाये उसी तरह छोड़ दिया गया जैसे पहले था, बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह ने उसी दरवाजे पर अपना पलंग बिछवाया और सारी रात जागते रह गए।

आधी रात बीत गई मगर कुछ देखने में न आया, तब वीरेन्द्रसिंह अपने बिस्तरे पर से उठे और कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। घण्टे भर बाद उस कोठरी में से कुछ खटके की आवाज आई, वीरेन्द्रसिंह ने फौरन तलवार उठा ली और तारासिंह को उठाने के लिए चले मगर खटके की आवाज पा तारासिंह पहले ही से सचेत हो गये थे, अब हाथ में खंजर ले वीरेन्द्रसिंह के साथ टहलने लगे।

आधी घड़ी के बाद जंजीर खटकने की आवाज इस जगह पर हुई, जिससे साफ मालूम हो गया कि किसी ने इस कोठरी का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया। थोड़ी ही देर बाद पैरों के धमाधम की आवाज भीतर से आने लगी, मानो चार-पाँच आदमी भीतर उछल-कूद रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह कोठरी के दरवाजे के पास गये और हाथ का एक धक्का देकर किवाड़ खोलना चाहा मगर भीतर से बन्द रहने के कारण दरवाजा न खुला, लाचार उसी जगह खड़े हो भीतर की आहट पर गौर करने लगे।

अब पैरों की धमाधम की आवाज बढ़ने लगी और धीरे-धीरे इतनी ज्यादा हुई कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी उठे और कोठरी के पास जा कर खड़े हो गये। फिर दरवाजा खोलने की कोशिश की गई मगर न खुला। भीतर जल्द-जल्द पैर उठाने और पटकने की आवाज से सब को निश्चय हो गया कि अन्दर लड़ाई हो रही है। थोड़ी ही देर बाद तलवारों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी। अब भीतर लड़ाई होने में किसी तरह का शक न रहा। आनन्दसिंह ने चाहा कि दरवाजे का कुलाबा तोड़ा जाय, मगर वीरेन्द्रसिंह की मरजी न पा कर सब चुपचाप खड़े आहट सुनते रहे।

यकायक धमधमाहट की आवाज बढ़ी और तब सन्नाटा हो गया। घड़ी भरतक ये लोग बाहर खड़े रहे मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर किसी तरह की आहट