पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१२४

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किसी तरह भी खिलने में नहीं आतीं। बाग में जितनी चीजें दिल खुश करने वाली हैं वे सभी इस समय इन दोनों को बुरी मालूम होती हैं। बहुत देर से ये दोनों भाई बाग में टहल रहे हैं मगर ऐसी नौबत न आई कि एक दूसरे से बात करें या हँसें क्योंकि दोनों के दिल चुटीले हो रहे हैं, दोनों ही अपनी-अपनी धुन में डूबे हुए हैं, दोनों ही को अपने-अपने माशूक की खोज है, दोनों ही सोच रहे हैं, कि 'हाय, क्या ही आनन्द होता अगर इस समय वह भी मौजूद होता जिसे जी प्यार करता है या जिसके बिना दुनिया की सम्पत्ति तुच्छ मालूम होती है!' दिल बहलाने का बहुत-कुछ उद्योग किया, मगर न हो सका, लाचार दोनों भाई उस बारहदरी में पहुँचे जो बाग के दक्खिन तरफ महल के साथ सटी हुई है और जहाँ इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह अपने मुसाहिबों के साथ जी बहलाने की बातें कर रहे थे। देवीसिंह भी उनके पास बैठे हुए थे जो कभी-कभी लड़कपन की बातें याद दिलाने के साथ ही गुप्त दिल्लगी भी करते जाते थे और जवाब भी पाते थे। दोनों लड़के भी वहाँ जा पहुँचे मगर इनके बैठते ही मजलिस का रंग बदल गया और बातों ने पलटा खाकर दूसरा ही ढंग पकड़ लिया जैसा अक्सर हँसी-दिल्लगी करते बड़ों के बीच में समझदार लड़कों के पास आ बैठने से हो जाता है।

वीरेन्द्रसिंह––अब तो चुनार जाने का जी चाहता है मगर···

देवीसिंह––यहाँ आपकी जरूरत भी अब क्या है?

वीरेन्द्रसिंह––ठीक है, यहाँ मेरी जरूरत नहीं है, लेकिन यहाँ की अद्भुत बातें देख कर यह विचार होता है कि मेरे चले जाने से कोई बखेड़ा न मचे और लड़कों को तकलीफ न हो।

इन्द्रजीतसिंह––(हाथ जोड़ कर) इसकी चिन्ता आप न करें। हम लोग जब इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने को सम्हाल न सकेंगे तो आगे क्या करेंगे!

वीरेन्द्र––तो क्या तुम्हारा इरादा भी यहाँ रहने का है?

इन्द्रजीतसिंह––यदि आज्ञा हो!

वीरेन्द्रसिंह––(कुछ सोच कर) क्यों देवीसिंह?

देवीसिंह––क्या हर्ज है, रहने दीजिए।

वीरेन्द्रसिंह––और तुम?

देवीसिंह––मैं आपके साथ चलूँगा, यहाँ भैरों और तारा रहेंगे, वे दोनों होशियार हैं, कुछ हर्ज नहीं है!

भैरोंसिंह––(हाथ जोड़ कर) यहाँ की अद्भुत बातें हम लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं!

तारासिंह––(हाथ जोड़ कर) सरकार की मर्जी नहीं पाई, नहीं तो ऐसी-ऐसी लीलाओं की तो मैं एक ही दिन में काया पलट कर देने की हिम्मत रखता हूँ।

भैरोंसिंह––अगर मरजी हो तो इन अद्भुत बातों का आज ही निपटारा कर दिया जाये।

वीरेन्द्रसिंह––(मुस्कुरा कर) नहीं, ऐसी कोई जरूरत नहीं, हमें तुम लोगों के

च॰ स॰-1-7