आनन्दसिंह—ऐसा करने पर भी...
इन्द्रजीतसिंह-खैर, जो कुछ तुम्हें कहना हो, साफ-साफ कहो!
आनन्दसिंह-आपका अकेले जाना मुनासिब नहीं, दुश्मन के घर में जाकर अपने को सँभाले रहना भी कठिन है, राजा की मौजूदगी में रिआया को हर तरह उसका डर बना ही रहता है, आप दुश्मन के घर किसी तरह निश्चिन्त नहीं रह सकते और आपके इस तरह चले जाने बाद मेरा जी यहाँ कभी नहीं लग सकता।
राजगृह जाने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह कैसे ही मुस्तैद क्यों न हों, लेकिन छोटे भाई की आखिरी बात ने उन्हें हर तरह से मजबूर कर दिया। कुँअर इन्द्रजीतसिंह बड़े ही समझदार और बुद्धिमान थे, मगर मुहब्बत का भूत जब किसी के सिर पर सवार होता है तो वह पहले उसकी बुद्धि की ही मिट्टी पलीत करता है।
छोटे भाई की बात सुन इन्द्रजीतसिंह ने भैरोंसिंह की तरफ देखा।
भैरोंसिंह-मैं भी यही चाहता था कि आप दो-चार रोज यहीं और सब्र करें, और तब तक मुझे राजगृह से घूम आने दें।
आनन्दसिंह–(भैरोंसिंह की तरफ देखकर) वादा करके जाओ कि तुम कब लौटोगे?
भैरोंसिंह-चार दिन के अन्दर ही मैं यहाँ पहुँच जाऊँगा।
आनन्दसिंह–(भैरोंसिंह की तरफ देखकर इन्द्रजीतसिंह से) यदि आज्ञा हो जाय तो ये इधर ही से चले जायें, घर जाने की जरूरत ही क्या?
भैरोंसिंह-मैं तैयार हूँ।
इन्द्रजीतसिंह-घर जाकर अपना सामान तो इन्हें दुरुस्त करना ही होगा, हाँ मुझसे चाहे इसी समय बिदा हो जायँ।
17
भैरोंसिंह को राजगृह गये आज तीसरा दिन है। वहाँ का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए कुँअर इन्द्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की खयाली तस्वीर उनकी आँखों के सामने आ-आ कर गायब हो जाती है। इससे उन्हें और भी दुःख होता है, घबरा कर लम्बी साँस ले उठ बैठते हैं। कभी-कभी जब बेचैनी बहुत बढ़ जाती है तो पलंग को छोड़ कमरे में टहलने लगते हैं।
इसी हालत में इन्द्रजीत सिंह कमरे के अन्दर टहल रहे थे, इतने में पहरे के एक सिपाही ने अन्दर की तरफ झाँक कर देखा और इनको टहलते देख हट गया, थोडी देर बाद वह दरवाजे के पास इस उम्मीद में आकर खड़ा हो गया कि कुमार उसकी तरफ, देखकर पूछे तो वह कुछ कहे, मगर कुमार तो अपने ध्यान में डूबे हुए हैं, उन्हें खबर ही