पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१२९

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भैरोंसिंह-दुष्ट अग्निदत्त के लिए तो आप अकेले बहुत हैं, मगर शहर भर के लिए नहीं।

इन्द्रजीतसिंह-शहर भर से मुझे कोई मतलब नहीं।

भैरोंसिंह-आखिर शहर वाले उसकी तरफदारी करेंगे या नहीं?

इन्द्रजीतसिंह-इसका अन्दाजा तो गयाजी पर कब्जा करने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा।

भैरोंसिंह-ठीक है, मगर अपनी तरफ से मजबूती रखना मुनासिब है।

इन्द्रजीतसिंह-अच्छा, तो मैं आनन्द को समझा दूँगा कि फलाँ दिन एक सरदार को थोड़ी फौज देकर हमारी मदद के लिए भेज देना।

भैरोंसिंह-यह हो सकता है, मगर उत्तम तो यही था कि दो-चार दिन और ठहर जाते, तब तक मैं राजगृह से घूम आता।

इन्द्रजीतसिह-नहीं, अब इस किस्म की नसीहत सुनने लायक मैं नहीं रहा।

भैरोंसिंह-(कुछ देर सोचकर) खैर, जैसी आपकी मर्जी।

शाम के वक्त दोनों भाई घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों और बहुत से मुसाहिबों और सरदारों को साथ ले घूमने और हवा खाने के लिए महल के बाहर निकले कायदे के मुताबिक सरदार और मुसाहिब लोग अपने-अपने घोड़ों पर उन दोनों भाइयों के घोड़ों से लगभग पच्चीस कदम पीछे जाते थे। जब इन्द्रजीतसिंह या आनन्दसिंह घूमकर उनकी तरफ देखते, तब ये लोग झट आगे बढ़ जाते और बात सुनकर फिर पीछे हट जाते। हाँ दोनों ऐयार घोड़ों की रकाब थामे पैदल साथ जा रहे थे। जब ये दोनों भाई घूमने के लिए बाहर निकलते, तब शहर के मर्द-औरत बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी इनको देखकर खुश होते थे। जिसके मुँह से सुनिये, यही आवाज निकलती थी, "ईश्वर ने हम लोगों की सुन ली, जो ऐसे राजकुमारों के चरण यहाँ आये, और उस खुदगर्ज नमकहराम बेईमान का साया हमारे सिर से हटा।"

जब घूमते हुए ये दोनों भाई शहर से बाहर हुए, इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "मैं किसी काम के लिए भैरोंसिंह को साथ लेकर राजगृह जाता हूँ। आज से ठीक आठवें दिन, अर्थात् रविवार को, किसी सरदार के साथ थोड़ी-सी फौज हमारी मदद को भेज देना।"

आनन्दसिंह-(थोड़ी देर चुप रहने के बाद) जो हुक्म; मगर...

इन्द्रजीतसिंह-तुम किसी तरह की चिन्ता मत करो। मैं अपने को हर तरत से सँभाले रहूँगा।

आनन्दसिंह-ठीक है, लेकिन...

इन्द्रजीतसिंह-गयाजी पहुँचने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा कि माधवी की रिआया हमारे खिलाफ न होगी।

आनन्दसिंह-ईश्वर करे ऐसा ही हो, परन्तु...

इन्द्रजीतसिंह-जब तक तुम्हारी फौज वहाँ न पहुँच जायगी, हम लोगों को जो कुछ करना होगा, छिप कर करेंगे।