इन्द्रजीतसिंह–कहाँ हैं और किसके कब्जे में हैं?
कमला-इस समय वह खुदमुख्तार हैं, सिवाय लज्जा के उन्हें और किसी का डर नहीं।
इन्द्रजीतसिंह-जल्द बताओ, वह कहाँ हैं? मेरा जी घबरा रहा है। कमला-वह इसी शहर में हैं मगर अभी आपसे मिलना नहीं चाहतीं।
इन्द्रजीतसिंह-(आँखों में आँसू भर कर) बस तो मुझे मालूम हो गया कि उन्हें मेरी तरफ से रंज है, मेरे किए कुछ न हो सका, इसका उन्हें दुःख है।
कमला-नहीं-नहीं, ऐसा भूल के भी न सोचिए।
इन्द्रजीतसिंह-तो फिर मैं उनसे क्यों नहीं मिल सकता?
कमला—(कुछ सोच कर) मिल क्यों नहीं सकते, मगर इस समय-
इन्द्रजीतसिंह-क्या तुमको मुझ पर दया नहीं आती! अफसोस, तुम बिल्कुल नहीं जानतीं कि तुम्हारी बातें सुन कर इस समय मेरी दशा कैसी हो रही है। जब तुम खुद कह रही हो कि वह स्वतन्त्र हैं, किसी के दबाव में नहीं हैं और इसी शहर में हैं तो मुझसे न मिलने का कारण ही क्या है? बस, यही न कि मैं उसके लायक नहीं समझा जाता!
कमला-फिर भी आप उसी खयाल को मजबूत करते हैं! खैर, तो फिर चलिए मैं आपको ले चलती हूँ, जो होगा देखा जायगा, मगर अपने साथ किसी ऐयार को लेते चलिए। भैरोंसिंह तो यहाँ हैं नहीं, आपने उन्हें राजगृह भेज दिया है।
इन्द्रजीतसिंह-क्या हर्ज है तारासिंह को साथ लिये चलता हूँ, मगर भैरोंसिंह के जाने की खबर तुम्हें क्योंकर मिली?
कमला-मैं बखूबी जानती हूँ, बल्कि उनसे मिलकर मैंने कह भी दिया है कि किशोरी राजगृह में नहीं हैं, तुम बेखौफ अपना काम करना।
इन्द्रजीतसिंह-अगर तुमने उससे ऐसा कह दिया है तो राजगृह में वह बड़ा ही बखेड़ा मचावेगा!
कमला-मचाना ही चाहिए।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उसी समय तारासिंह को बुलाया और उन्हें साथ ले कपड़े पहनकर कमला के साथ किशोरी से मिलने की खुशी में लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाते रवाना हुए।
शहर-ही-शहर बहुत-सी गलियों में घुमाती हुई इन दोनों को साथ लिए कमला बहुत दर चली गई और विष्णुपादुका मन्दिर के पास ही एक मकान के मोड पर पहुँच कर खड़ी हो गई।
इन्द्रजीतसिंह-क्यों, क्या हुआ? रुक क्यों गईं?
कमला-बस, हम लोगों को इसी मकान में चलना है।
इन्द्रजीतसिंह-तो चलो।
कमला-इस मकान के दरवाजे के सामने ही एक भारी जमींदार की बैठक है। वहाँ दिन-रात पहरा लगता है। इधर से आप लोगों का जाना और यह जाहिर