पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१४४

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जीतसिंह की तलवार ने नाहरसिंह के नेजे को दो टुकड़े कर दिये और नाहरसिंह की ढाल पर बैठकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तलवार कब्जे से अलग हो गयी। थोड़ी देर के लिए दोनों बहादुर ठहर गये। कुँअर इन्द्रजीतसिंह की बहादुरी देखकर नाहरसिंह बहुत खुश हुआ और बोला––

नाहरसिंह––शाबाश! तुम्हारे ऐसा बहादुर मैंने आज तक नहीं देखा।

इन्द्रजीतसिंह––ईश्वर की सृष्टि में एक से एक बढ़ के पड़े हैं, तुम्हारे या हमारे ऐसों की बात ही क्या है!

नाहरसिंह––आपका कहना बहुत ठीक है, मेरा प्रण क्या है, आप जानते हैं?

इन्द्रजीतसिंह––कह जाइए, अगर नहीं जानता हूँ तो अब मालूम हो जायेगा।

नाहरसिंह––मैंने प्रण किया है कि जो कोई लड़कर मुझे जीतेगा, मैं उसी की ताबेदारी कबूल करूँगा।

इन्द्रजीतसिंह––तुम्हारे ऐसे बहादुर का यह प्रण बेमुनासिब नहीं है। फिर आइए, कुश्ती से निपटारा कर लिया जाय।

नाहरसिंह––बहुत अच्छा, आइए!

दोनों में कुश्ती होने लगी। थोड़ी ही देर में कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने नाहरसिंह को जमीन पर दे मारा और पूछा, "कहो, अब क्या इरादा है?"

नाहरसिंह––मैं तावेदारी कबूल करता हूँ।

इन्द्रजीतसिंह उसकी छाती पर से उठ खड़े हुए और इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ सन्नाटा था। किशोरी, किन्नरी या कमला का कहीं पता नहीं। भीमसेन और उसके साथियों का भी (अगर कोई वहाँ हो) नाम-निशान नहीं, यहाँ तक कि अपने ऐयार तारासिंह की सूरत भी उन्हें दिखाई न दी।

इन्द्रजीतसिंह––यह क्या! चारों तरफ सन्नाटा क्यों छा गया?

नाहरसिंह––ताज्जुब है! इसके पहले तो यहाँ कई आदमी थे, न मालूम वे सब कहाँ चले गये?

इन्द्रजीतसिंह––तुम कौन हो और तुम्हारे साथ कौन था?

नाहरसिंह––मैं आपका ताबेदार हूँ, मेरे साथ शिवदत्त सिंह का लड़का भीमसेन था और उसके पहलू में उसका नौकर था। आशा है कि आप भी अपना परिचय मुझे देंगे।

इन्द्रजीतसिंह––मेरा नाम इन्द्रजीतसिंह है।

नाहरसिंह––हाँ!

नाम सुनते ही नाहरसिंह उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला, "मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने मुझे आपकी तावेदारी में सौंपा! यदि किसी दूसरे की ताबेदारी कबूल करनी पड़ती तो मुझे बड़ा दुःख होता! नाहरसिंह ने सच्चे दिल से कुमार की ताबेदारी कबूल की। इसके बाद बड़ी देर तक दोनों बहादुर चारों तरफ घूम-घूमकर लोगों को ढूँढ़ते रहे, मगर किसी का पता न लगा। हाँ, एक पेड़ के नीचे भीमसेन दिखाई पड़ा जिसके हाथ-पैर कमन्द से