पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१५७

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"चौबेजी महाराज, बड़े भाग्य से आप लोगों के दर्शन हुए हैं। आप लोग दो-चार रोज यहाँ जरूर रहिये! इसी जगह आपको महाराज कुमार से भी मिलावेंगे और आप लोगों को बहुत-कुछ दिलावेंगे। हमारे महाराज कुमार बहुत हँसमुख, नेक और बुद्धिमान हैं। आप उन्हें देख बहुत प्रसन्न होंगे!"

बद्रीनाथ-बहुत खूब महाराज, आप लोगों की इतनी कृपा है तो जरूर रहेंगे और आपके महाराज कुमार से भी मिलेंगे। वे यहाँ कब आते हैं?

पुजारी-प्रातः और सायंकाल दोनों समय यहाँ आते हैं और इसी मंदिर में सन्ध्या-पूजा करते हैं!

भैरोंसिंह-तो आज भी उनके दर्शन होगे?

पुजारी-अवश्य।

यह मन्दिर किले की दीवार के पास ही था। इसके पीछे की तरफ एक छोटी सी लोहे की खिड़की थी जिसकी राह से लोग किले के बाहर जंगल में जा सकते थे। पुजारी के हुक्म से भंग पीने के बाद दोनों ऐयार उसी राह से जंगल में गए और मैदान होकर लौट आये, पुजारी लोग भी उसी राह से जंगल-मैदान गये।

संध्या समय महाराज कुमार भी वहाँ आये और मन्दिर के अन्दर दरवाजा बन्द करके घण्टे भर से ज्यादा देर तक सन्ध्या-पूजा करते रहे। उस समय केवल एक बड़ा पुजारी उस मन्दिर में तब तक मौजूद रहा जब तक महाराज कुमार नित्य-नेम करते रह। दोनों ऐयारों ने भी महाराजकुमार को अच्छी तरह देखा, मगर पुजारी को कह दिया था कि आज महाराज कुमार को यह मत कहना कि यहाँ दो चौबे आये हैं, कल सायंकाल को हम लोगों का सामना कराना।

दोनों ऐयारों ने रात भर उसी मन्दिर में गुजारा किया और अपने मसखरेपन जारा महाशय को बहत ही प्रसन्न किया, साथ ही इसके उन्हें इस बात का भी विश्वास दिलाया कि इस पहाड़ के नीचे एक बड़े भारी महात्मा आए हुए हैं, आपको उनसे जरूर मिलावेंगे, हम लोगों पर उनकी बड़ी ही कृपा रहती है।

सवेरे उठ कर इन दोनों ने फिर भंग घोंट कर पी और सभी को पिलाने के बाद उसी खिड़की की राह मैदान गये। दोनों ऐयार तो अपनी धुन में थे, महाराजकुमार को यहाँ से उड़ाने की फिक्र सोच रहे थे तथा उसी खिड़की की राह निकल जान का उन्होंने मौका तजबीजा था, इसलिए मैदान जाते समय इस जंगल को दोनों आदमी अच्छी तरह देखने लगे कि इधर से सीधी सडक पर निकल जाने का क्योंकर हम लोगों को मौका मिल सकता है। इस काम में उन्होंने दिन भर बिता दिया और आर रास्ता अच्छी तरह समझ-बूझ कर शाम होते-होते मन्दिर में लौट आये।

पुजारी-कहिये चौबे महाराज! आप लोग कहाँ चले गये थे?

बद्रीनाथ-अजी महाराज, कुछ न पूछो! जरा आगे क्या बढ़ गये बस जहन्नुम पहुँच गये। ऐसा रास्ता भूले कि बस हमारा ही जी जानता है।

भैरोंसिंह-ईश्वर की ही कृपा से इस समय लौट आये, नहीं तो कोई उम्मीद यहाँ पहुँचने की न थी।