बाबाजी–(भैरोंसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो भैरों और तारा, अच्छे हो?
दोनों-(हाथ जोड़ कर) आपकी दया से!
बाबाजी-राजकुमार, मैं खुद तुम लोगों के पास जाने को था, क्योंकि तुमने शेर का शिकार करने के लिए इस जंगल में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूँ, घूमता-फिरता इस जंगल में भी आ पहुँचा। यह जंगल अच्छा मालूम होता है इसलिए दो-तीन दिन तक यहां रहने का विचार है, कोई अच्छी जगह देख कर धूनी लगाऊँगा। मेरे साथ सवारी और असबाब लादने के कई शेर हैं, इसलिए कहता हूँ कि धोखे में मेरे किसी शेर को मत मारना, नहीं तो मुश्किल होगी। सैकड़ों शेर पहुंच कर तुम्हारे लश्कर में हलचल मचा डालेंगे और बहुतों की जान जाएगी। तुम प्रतापी राजा सुरेन्द्रसिंह[१] के लड़के हो, इसलिए तुम्हें पहले ही से समझा देना मुनासिब है, जिसमें किसी तरह का दुख न हो।
इन्द्रजीतसिंह-महाराज, मैं कैसे जानूँगा कि यह आपका शेर है? ऐसा ही है, तो शिकार नहीं खेलूँगा।
बाबाजी-नहीं, तुम शिकार खेलो, मगर मेरे शेरों को मत मारो!
इन्द्रजीतसिंह-मगर यह कैसे मालूम होगा कि फलां शेर आपका है?
बाबाजी-देखो, मैं अपने शेरों को बुलाता हूँ, पहचान लो।
बाबाजी ने शंख बजाया। भारी शंख की आवाज चारों तरफ जंगल में गूंज गई और हर तरफ से गुर्राहट की आवाज आने लगी। थोड़ी ही देर में इधर-उधर से दौड़ते हुए पाँच शेर और आ पहुँचे। ये चारों दिलावर और बहादुर थे, अगर कोई दूसरा होता तो डर से उसकी जान निकल जाती। इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के घोड़े शेरों को देख कर उछलने-कूदने लगे, मगर रेशम की मजबूत बागडोर से बँधे हुए थे इससे भाग न सके। इन शेरों ने आकर बड़ी ऊधम मचाई-इन्द्रजीतसिंह वगैरह को देख कर गरजने-कूदने और उछलने लगे, मगर बाबाजी के डाँटते ही सब ठंडे हो सिर नीचा कर भेड़-बकरी की तरह खड़े हो गए।
बाबाजी-देखो इन शेरों को पहचान लो, अभी दो-चार और हैं, मालूम होता हैं उन्होंने शंख की आवाज नहीं सुनी। खैर, अभी तो मैं इसी जंगल में हूँ, उन बाकी शेरों को भी दिखला दूंगा-कल भर शिकार और बन्द रखो।
भैरोंसिंह-फिर आपसे मुलाकात कहाँ होगी? आपकी धूनी किस जगह लगेगी?
बाबाजी-मुझे तो यही जगह आनन्द की मालूम होती है। कल इसी जगह आना, मुलाकात होगी।
बाबाजी शेर से नीचे उतर पड़े और जितने शेर उस जगह आए थे, वे सब बाबाजी के चारों तरफ घूमने तथा मुहब्बत से उनके बदन को चाटने और सूँघने लगे।
- ↑ साधु महाशय भूल गए, वीरेन्द्रसिंह की जगह सुरेन्द्रसिंह का नाम ले बैठे।