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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१६

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ये लोग धीरे-धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बाईं तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई जिसे सुनते ही चारों अटक गये और घूम कर उस तरफ देखने लगे जिधर से आवाज आई थी।

लगभग दो सौ गज की दूरी पर एक साधु शेर पर सवार जाता दिखाई पड़ा जिसकी लम्बी-लम्बी और घनी जटाएं पीछे की तरफ लटक रही थीं—एक हाथ में त्रिशूल दूसरे में शंख लिए हुए था। इसकी सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उसकी गर्दन के बाल जमीन तक लटक रहे थे।

इसके आठ-दस हाथ पीछे एक शेर और जा रहा था जिसकी पीठ पर आदमी के बदले बोझ लदा हुआ नजर आया। शायद यह असबाब उन्हीं शेर पर सवार महात्मा का हो।

शाम हो जाने के सबब से साधु की सूरत साफ मालूम न पड़ी तो भी उसे देख इन चारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और कई तरह की बातें सोचने लगे।

इन्द्रजीतसिंह-इस तरह शेर पर सवार होकर घूमना मुश्किल है।

आनन्दसिंह-कोई अच्छे महात्मा मालूम होते हैं।

भैरोंसिंह-पीछे वाले शेर को देखिए जिस पर असबाब लदा हुआ है, किस तरह भेड़ की तरह सिर नीचा किये जा रहा है।

तारासिंह-शेरों को वश में कर लिया है।

इन्द्रजीतसिंह-जी चाहता है उनके पास चल कर दर्शन करें।

आनन्दसिंह-अच्छी बात है। चलिए, पास से देखें, कैसा शेर है।

तारासिंह-बिना पास गए महात्मा और पाखण्डी में भेद न मालूम होगा।

भैरोंसिंह-शाम तो हो गई है, खैर चलिए, आगे से बढ़ कर रोकें।

आनन्द सिंह-आगे से चल कर रोकने से बुरा न मानें।

भैरोंसिंह-हम ऐयारों का पेशा ही ऐसा है कि पहले तो उनका साधु होना ही विश्वास नहीं करते!

इन्द्रजीतसिंह-आप लोगों की क्या बात है जिनकी मूंछ हमेशा ही मुड़ी रहती हैं। खैर, चलिए तो सही।

भैरोंसिंह-चलिए।

चारों आदमी आगे घूम कर बाबाजी के सामने गए जो शेर पर सवार जा रहे थे। इन लोगों को अपने पास आते देख बाबाजी रुक गए। पहले तो इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के घोड़े शेरों को देख कर अड़े, मगर फिर ललकारने से आगे बढ़े। थोड़ी दूर जाकर दोनों भाई घोड़ों के ऊपर से उतर पड़े, भैरोंसिंह और तारासिंह ने दोनों घोड़ों को पेड़ से बांध दिया, इसके बाद पैदल ही चारों आदमी महात्मा से पास पहुंचे।

बाबाजी-(दूर ही से) आओ राजकुमार इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह! कहो, कुशल तो है?

इन्द्रजीतसिंह-(प्रणाम करके) आपकी कृपा से सब मंगल है।