बिना कुछ विचार किए इस आदमी के साथ मेरे पास चले आइये और जो कुछ यह माँगे दे दीजिए, नहीं तो मुझसे मिलने की आशा छोड़िए!"
किशोरी—(कुछ देर तक सोचने के बाद) मैं समझ गई कि तुम्हारी नीयत क्या है। नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं ऐसी चिट्ठी लिखकर प्यारे इन्द्रजीतसिंह को आफत में नहीं फँसा सकती।
धनपति-तब तू किसी तरह भी नहीं छूट सकती।
किशोरी–जो भी हो।
धनपति-बल्कि तेरी जान भी चली जायगी।
किशोरी–बला से, इन्द्रजीतसिंह के नाम पर मैं जान देने को तैयार हूँ।
इतना सुनते ही धनपति (कुन्दन) का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया, अपने साथियों की तरफ देखकर बोलो, "अब मैं इसे नहीं छोड़ सकती, लाचार हूँ। इसके हाथ-पैर बाँधो और मुझे तलवार दो!" हुक्म पाते ही उसके साथियों ने बड़ी बेरहमी के साथ बेचारी किशोरी के हाथ-पैर बाँध दिए और धनपति तलवार लेकर किशोरी का सिर काटने के लिए आगे बढ़ी। उसी समय धनपति के एक साथी ने कहा, "नहीं, इस तरह मारना मुनासिब न होगा। हम लोग बात-की-बात में सूखी लकड़ियाँ बटोरकर ढेर करते हैं, इसे उसी पर रख कर फूंक दो, जलकर भस्म हो जायगी और हवा के झोंकों में इसकी राख का भी पता न लगेगा।"
इस राय को धनपति ने पसन्द किया और ऐसा ही करने के लिए उन्हें हुक्म दे दिया। संगदिल हरामखोरों ने थोड़ी ही देर में जंगल से चुनकर सूखी लकड़ियों का ढेर दिया। हाथ-पैर बाँध कर बेबस की हुई किशोरी उसी पर रख दी गई। धनपति के साथियों में से एक ने बटुए से सामान निकालकर एक छोटी-सी मशाल जलायी और उसे धनपति ने अपने हाथ में ले लिया। मुँह बन्द किए हुए किशोरी यह सब बात देख, सुन और सह रही थी। जिस समय धनपति मशाल लिये चिता के पास पहुँची, किशोरी, ऊँचे स्वर में कहा-
"हे अग्निदेव, तुम साक्षी रहना! मैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह की मुहब्बत में खुशी-खुशी अपनी जान देती हूँ। मैं खूब जानती हूँ कि तुम्हारी आँच प्यारे की जुदाई की आँच से बढ़कर नहीं है। जान निकलने में मुझे कुछ भी कष्ट न होगा। प्यारे इन्द्रजीत! देखना, मेरे लिए दुःखी न होना, बल्कि मुझे बिलकुल ही भूल जाना!!
हाय! प्रेम से भरी हुई बेचारी किशोरी की दिल को टुकड़े-टुकड़े कर देने वाली धनपति ने, चिता में मशाल रख ही दी।