रामभोली है, फिर धनपति (कुन्दन) लाली से मिल क्यों न गई, क्योंकि वे दोनों तो एक ही के तुल्य थीं? ऐसी अवस्था में तो इस बात का शक होता है कि लाली रामभोली न थी। फिर तहखाने में धनपति के लिखे हुए 'बरवे' को सुनकर लाली क्यों हँसी? इत्यादि बातों को सोचकर पाठकों की चिन्ता अवश्य बढ़ेगी, पर क्या किया जाय, लाचारी है!
12
दूसरे दिन दो पहर दिन चढ़े बाद किशोरी की बेहोशी दूर हुई। उसने अपने को एक गहन वन में पेड़ों के झुरमुट में जमीन पर पड़े पाया और अपने पास कुन्दन और कई आदमियों को देखा। बेचारी किशोरी इन थोड़े ही दिनों में तरह-तरह को मुसीबतों में पड़ चुकी थी, बल्कि जिस सायत से वह घर से निकली, आज तक एक पल के लिए भी सुखी न हुई, मानो सुख तो उसके हिस्से ही में न था। एक मुसीबत से छूटी तो दूसरी में फँसी, दूसरी से छूटी तो तीसरी में फँसी। इस समय भी उसने अपने को बुरी अवस्था में पाया। यद्यपि कुन्दन उसके सामने बैठी थी, परन्तु उसे उसकी तरफ से किसी तौर पर कुछ भी भलाई की आशा न थी। इसके अतिरिक्त वहाँ और भी कई आदमियों को देख तथा अपने को बेहोशी की अवस्था में चैतन्य होते पा उसे विश्वास हो गया कि कुन्दन ने उसके साथ दगा की है। रात की बातें वह स्वप्न की तरह याद करने लगी और इस समय भी वह इस बात का निश्चय न कर सकी कि उसके साथ कैसा बर्ताव किया जायगा। थोड़ी देर तक वह अपनी मुसीबतों को सोचती और ईश्वर से अपनी मौत माँगती रही, आखिर उस समय उसे कुछ होश आया जब धनपति (कुन्दन) ने उसे पुकार कर कहा,
"किशोरी, तू घबरा मत, तेरे साथ कोई बुराई न की जायगी।"
किशोरी––मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रही हो। जो कुछ तुमने किया, उससे बढ़कर और बुराई क्या हो सकती है?
धनपति––तेरी जान नहीं मारी जायगी, बल्कि जहाँ तू रहेगी, हर तरह से आराम मिलेगा।
किशोरी––क्या इन्द्रजीतसिंह भी वहाँ दिखाई देंगे?
धनपति––हाँ, अगर तू चाहेगी।
किशोरी––(चौंककर) हैं, क्या कहा? अगर मैं चाहूँगी?
धनपति––हाँ, यही बात है।
किशोरी––कैसे?
धनपति––एक चिट्ठी इन्द्रजीतसिंह के नाम की लिखकर मुझे दे और उसमें जो कुछ मैं कहूँ, लिख दे!
किशोरी––उसमें क्या लिखना पड़ेगा?
धनपति––केवल इतना ही लिखना पड़ेगा––"अगर आप मुझे चाहते हैं तो