तेजी से कदम बढ़ाते शहर के बाहर हो गये।
रात अँधेरी थी। मैदान में जाकर भैरोंसिंह ने काला कपड़ा उतार दिया। इन तीनों ने चन्द्रमा की रोशनी में भैरोंसिंह को पहचाना-खुश होकर बारी-बारी से तीनों ने उसे गले लगाया और तब एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर बातचीत करने लगे।
बद्रीनाथ-भैरोंसिंह, इस वक्त तुम्हें देखकर तबीयत बहुत ही खुश हुई!
भैरोंसिंह-मैं तो किसी तरह छूट आया, मगर रामनारायण और चुन्नीलाल बेढब जा फँसे हैं।
ज्योतिषी-उन दोनों ने भी क्या यही धोखा खाया?
भैरोंसिह-मैं उनके छुड़ाने की भी फिक्र कर रहा हूँ।
पन्नालाल-वह क्या?
भैरोंसिंह-सो सब कहने-सुनने का मौका तो रात-भर है मगर इस समय मुझे भूख बड़े जोर से लगी है, कुछ हो तो खिलाओ।
बद्रीनाथ-दो-चार पेड़े हैं, जी चाहे तो खा लो।
भैरोंसिंह-इन दो-चार पेड़ों से क्या होगा? खैर, पानी का तो बन्दोबस्त होना चाहिए।
बद्रीनाथ-फिर क्या करना चाहिए?
भैरोंसिंह-(हाथ से इशारा करके) वह देखो, शहर के किनारे जो चिराग जल रहा है अभी देखते आये हैं कि वह हलवाई की दूकान है और वह ताजी पूरियाँ बना रहा है, बल्कि पानी भी उसी हलवाई से मिल जायगा।
पन्नालाल-अच्छा, मैं जाता हूँ।
भैरोंसिंह-हम लोग भी साथ चलते हैं, सब का इकट्ठा ही रहना ठीक है। कहीं ऐसा न हो कि आप फंस जायें और हम लोग राह ही देखते रहें।
पन्नालाल-फंसना क्या खिलवाड़ हो गया!
भैरोंसिंह-खैर हर्ज ही क्या है अगर हम लोग साथ चलें? तीन आदमी किनारे खड़े हो जायंगे, एक आदमी आगे बढ़कर सौदा ले लेगा।
बद्रीनाथ-हाँ-हाँ, यही ठीक होगा, चलो, हम लोग एक साथ चलें।
चारों ऐयार एक साथ वहाँ से रवाना हुए और उस हलवाई के पास पहुँचे, जिसकी अकेली दूकान शहर के किनारे पर थी। बद्रीनाथ, ज्योतिषीजी और भैरोंसिंह कुछ इधर ही खड़े रहे और पन्नालाल सौदा खरीदने दुकान पर गये। जाने के पहले ही भैरोंसिंह ने कहा, "मिट्टी के बर्तन में पानी भी देने का इकरार हलवाई से पहले कर लेना नहीं तो पीछे हुज्जत करेगा।"
पन्नालाल हलवाई की दूकान पर गये और दो सेर पूरी तथा सेर भर मिठाई मांगी। हलवाई ने खुद पूछा-"पानी भी चाहिए या नहीं?"
पन्नालाल-हाँ-हाँ, पानी जरूर देना होगा।
हलवाई-कोई बर्तन है?