हुक्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एकदम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस वक्त तो महाराज सुरेन्द्रसिंह ने यह सन्नाटा सिर्फ इतना ही कहके तोड़ा, "खैर, चम्पा और चपला की बात मान लेनी चाहिए।"
जीतसिंह-जो मर्जी, मगर देवीसिंह के लिए क्या हुक्म होता है?
सुरेन्द्रसिंह और तो कुछ नहीं सिर्फ इतना ही खयाल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त क्योंकर होगी?
जीतसिंह-मैं समझता हूँ कि यहाँ की हिफाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूँगा।
सुरेन्द्रसिंह—(कुछ मुस्कुराकर और उम्मीद भरी निगाहों से जीत सिंह की तरफ देखकर) खैर, जो मुनासिब समझो।
जीतसिंह—(देवीसिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें, आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें। इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गये।
7
अपने भाई इन्द्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनन्दसिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर-उधर निगाह दौड़ाने लगे। पश्चिम की तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पीं। ये तेजी के साथ उस तरफ बढ़े, और उन दोनों के पास पहुँचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किये चले गये मगर उम्मीद पूरी न हुई, क्योंकि पहाड़ी के नीचे पहुंचकर वे दोनों रुकी और अपने पीछे आते हुए आनन्दसिंह की तरफ देख घोड़ों को एकदम तेज कर पहाड़ी की बगल से घुमाती हुई गायब हो गयीं।
खूब खिली हुई चाँदनी रात होने के सबब से आनन्दसिंह को ये दोनों औरतें दिखाई पड़ीं और इन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाड़ी के पास पहुंचते ही उन दोनों के भाग जाने से इनको बड़ा ही रंज हुआ। खड़े होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इनको हैरान और सोचते हुए छोड़कर निर्दयी चन्द्रमा ने भी धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को जाते देख मौका पाकर अँधेरे ने चारों तरफ हुकूमत जमाई। आनन्दसिंह और भी दुःखी हुए। क्या करें? कहाँ जायें? किससे पूछे कि इन्द्रजीतसिंह को कौन ले गया?
दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी झोंपड़ी