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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/४१

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में इतनी रकम हाथ आई। क्या बुरा हुआ?

सब-कुछ सामान अपने कब्जे में करने के बाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुँच कमन्द के जरिये से आनन्दसिंह को मकान के बाहर निकालने के बाद आप भी बाहर हो गया। मैदान की हवा लगने से आनन्दसिंह का जी ठिकाने हुआ। समझे कि अब जान बची। बाहर से देखने पर मालूम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अन्दर है, कारीगरों ने पत्थर तोड़कर इसे तैयार किया है। इस मकान के अगल-बगल में कई सुरंगें भी दिखाई पड़ी।

आनन्दसिंह को लिए हुए वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहाँ कसे-कसाये दो घोड़े पेड़ से बँधे थे। बोला, "लीजिये, एक पर आप सवार होइये दूसरे पर मैं चढ़ता हूँ, चलिए, आपको घर तक पहुँचा आऊँ।"

आनन्दसिंह-चुनार यहाँ से कितनी दूर और किस तरफ है?

सिपाही-चुनार यहाँ से बीस कोस है। चलिये, मैं आपके साथ चलता हूँ। इन घोड़ों में इतनी ताकत है कि सवेरा होते-होते हम लोगों को चुनार पहुँचा दें। आप घर चलिये, इन्द्रजीतसिंह के लिए कुछ फिक्र न कीजिये, उनका पता भी बहुत जल्द ही लग जायेगा, आपके ऐयार लोग उनकी खोज में निकले हुए हैं।

आनन्दसिंह-ये घोड़े कहाँ से लाये?

सिपाही-कहीं से चुरा लाए, इसका कौन ठिकाना है?

आनन्दसिंह-खैर यह तो बताओ तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है?

सिपाही-यह मैं नहीं बता सकता और न आपको इसके बारे में कुछ पूछना मुनासिब ही है!

आनन्दसिंह-खैर, अगर कहने में कुछ हर्ज है तो...

आनन्दसिंह अपना पूरा मतलब कहने भी न पाये थे कि कोई चौंकाने वाली चीज इन्हें नजर आई। स्याह कपड़ा पहने हुए किसी को अपनी तरफ आते देखा। सिपाही और आनन्दसिंह दोनों एक पेड़ की आड़ में हो गये, और वह आदमी इनके पास ही से कुछ बड़बड़ाता हुआ निकल गया, जिसे यह गुमान भी न था कि इस जगह पर कोई छिपा हुआ मुझे देख रहा है।

उसकी बड़बड़ाहट इन दोनों ने सुनी, वह कहता जाता था-"अब मेरा कलेजा ठण्डा हुआ, अब मैं घर जाकर बेशक सुख की नींद सोऊँगी और उस हरामजादे की लाश को गीदड़ और कौए कल दिन भर में खा जायेंगे, जिसने मुझे औरत जानकर दबाना चाहा था और यह न समझा था कि इस औरत का दिल हजार मर्दो से भी बढ़कर है!"

आनन्दसिंह और सिपाही दोनों उसकी तरफ टकटकी लगाये देखते रहे जिसकी बकवाद से मालूम हो गया था कि कोई औरत है, वह देखते-देखते नजरों से गायब हो गई।

सिपाही-बेशक इसने कोई खून किया है।

आनन्दसिंह-और वह भी इसी जगह कहीं पास ही में, खोजने से जरूर पता लगेगा।