पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/६०

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की आबहवा ऐसी उत्तम है कि अगर वर्षों का बीमार भी आवे तो दो दिन में तन्दुरुस्त है। जाय और यहाँ की सैर से कभी जी न घबराये।

बीचोंबीच में एक आलीशान इमारत बनी हुई है, मगर चाहे उसमें हर तरह की सफाई क्यों न हो फिर भी वह किसी पुराने जमाने की मालूम होती है। उसी इमारत के सामने एक छोटी-सी खूबसूरत बावली बनी हुई है जिसके चारों तरफ की जमीन कुछ ज्यादा खूबसूरत मालूम होती है और फूल-पत्ते भी मौके से लगाए हुए हैं।

यह इमारत सुनसान और उदास नहीं है, इसमें पन्द्रह-बीस नौजवान खूबसूरत औरतों का डेरा है। देखिए इस शाम के सुहावने समय में वे सब घर से निकलकर चारों तरफ मैदान में घूम-घूमकर जिन्दगी का मजा ले रही हैं। सभी खुश, सभी की मस्तानी चाल, सभी फूलों को तोड़-तोड़कर आपस में गेंदबाजी कर रही हैं। हमारे नौजवान नायक कुँअर इन्द्रजीतसिंह भी एक हसीन नाजनीन के हाथ में हाथ दिये बावली के पूरब की तरफ टहल रहे हैं, बात-बात में हँसी-दिल्लगी हो रही है, दीन-दुनिया की सुध भूले हुए हैं।

लीजिए वे दोनों थककर बावली के किनारे एक खूबसूरत संगमरमर की चट्टान पर बैठ गये और बातचीत होने लगी-

इन्द्रजीतसिंह-माधवी, मेरा शक किसी तरह नहीं जाता। क्या सचमुच तुम वही हो जो उस दिन गंगा-किनारे जंगल में झूला झूल रही थीं?

माधवी-आप रोज मुझसे यही सवाल करते हैं और मैं कसम खाकर इसका जवाब दे चुको हूँ, मगर अफसोस कि मेरी बात पर विश्वास नहीं करते।

इन्द्रजीतसिंह-(अँगूठी की तरफ देखकर) इस तस्वीर से तो कुछ फर्क मालूम होता है।

माधवी-यह दोष मुसीवर का है।

इन्द्रजीतसिंह-खैर जो हो, फिर भी तुमने मुझे अपने वश में कर रखा है।

माधवी-जी हाँ ठीक है, मुझसे मिलने का उद्योग तो आप ही ने किया था!

इन्द्रजीतसिंह-अगर मैं उद्योग न करता तो क्या तुम मुझे जबर्दस्ती ले आती?

माधवी-खैर, जाने दीजिए, मैं कबूल करती हूँ कि आपने मेरे ऊपर अहसान किया, बस!

इन्द्रजीतसिंह-(हँसकर) वेशक तुम्हारे ऊपर अहसान किया कि दिल और जान तुम्हारे हवाले किये।

माधवी—(शरमा कर और सिर नीचा करके) बस रहने दीजिये, ज्यादे सफाई न दीजिये!

इन्द्रजीतसिंह-अच्छा इन बातों छोड़ो और अपने वादे को याद करो! आज कौन दिन है? बस, आज तुम्हारा पूरा हाल सुने बिना न मानूंगा चाहे जो हो, मगर देखो, फिर उन भारी कसमों की याद दिलाता हूँ जो मैं कई दफे तुम्हें दे चुका, मुझसे झूठ कभी न बोलना, नहीं तो अफसोस करोगी।

माधवी-(कुछ देर तक सोचकर) अच्छा, आज भर मुझे और माफ कीजिए,

च॰ स॰-1-3