लेकिन, वह केवल रचना के इतिहास बिन्दु की संज्ञा ही नहीं है, उसके अनेक रचनात्मक आयाम भी सामने आते हैं। और शायद इन रचनात्मक आयामों से प्रेरित होकर ही और उन्हें नयी रचनाशीलता के संदर्भ में प्रासंगिक मानते हुए ही कथाकार राजेन्द्र यादव ने चन्द्रकान्ता पर पुनर्विचार किया। उन्होंने इसे किसी-न-किसी रूप में उन प्रमुख रचनाओं के समकक्ष माना है जो अपने युग की मानसिकता और अन्तर व्यथा को गहरे में पकड़ती हैं। उन्होंने बहुत व्यापक स्तर पर उस पूरे राजनैतिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखा है जिसमें खत्री जी ने चन्द्रकान्ता की रचना की। और उसके निष्कर्ष बहुत दूर तक हमें प्रभावित भी करते हैं।
मुख्य बात यह है कि आज इस उपन्यास की चर्चा-परिचर्चा केवल प्रकाशन स्तर पर ही अर्थवान है या रचनात्मक स्तर पर भी। हमारे विचार में रचनात्मक स्तर पर इसका पर्यवेक्षण किसी न किसी रूप में साहित्य और समाज के आन्तरिक रिश्तों को समझने में सहायक होगा। चन्द्रकान्ता के कथानक का सुगठित फैलाव एक मूल्यहीनता का रचनालोक उपस्थिति करता है। "प्रेम और सम्पत्ति" दो केन्द्रीय आधारों पर हुआ संघर्ष महाभारत के कथा विकास के समान अपनी युगीन रचना सीमा में बढ़ता चलता जाता है। महाभारत में एक कथा के बीच कथा निकलती है और फिर मूल कथा से जुड़ कर उसमें समा जाती है। लेकिन उसका यह समा जाना उन अर्थों का निषेध कभी नहीं करता जिसके लिए उस कथा की रचना होती है। 'चन्द्रकान्ता संतति' में भी एक घटना के बाद दूसरी घटना जैसे एक जिज्ञासा के बाद दूसरी जिज्ञासा कथा को सरल और संश्लिष्ट बनाती चलती है। इसके साथ-साथ यह रचना एक विराट धोखे-छल-फरेब की दुनिया, मरने-मारने का संसार, हिंसक मानसिकता और आम आदमी की कम कीमत का अहसास एक बड़े स्तर पर कराकर सामाजिक मूल्यहीनता का लोक निर्मित करती है। यह जानना कितना आश्चर्यजनक है कि सामंती व्यवस्था में सामान्य व्यक्ति समाज के विशिष्ट व्यक्ति के लिए प्राण दे देते हैं और क्योंकि वे दास दासी होते हैं अतः यह प्राणोत्सर्ग उनके कर्तव्य में आता है। अर्थात् व्यक्तिगत राजनैतिक प्राकृतिक किसी भी तरह के संकट में यदि कष्ट होता है तो वह कष्ट आम आदमी को होता है। मरता है तो सामान्य व्यक्ति मरता है। पूरी भ्रष्ट और चरित्रहीन व्यवस्था में आसानी से छोटे आदमियों को मार दिया जाता है। इस तरह यदि जासूसी और कौतूहल रचना धर्मिता की सीमा से परे मूल्य स्तर पर चन्द्रकान्ता को देखा जाये तो वह 'मूल्य हीनता का रचना लोक' प्रस्तुत करती है। एक व्यवस्था के पक्ष और विपक्ष में आने वाले कभी महत्वपूर्ण पात्र अपनी अपरिवर्तन शीलता में अपने-अपने कामों को अन्जाम देते रहते हैं और एक दूसरे स्तर पर चलने वाली कहानी दूसरे स्तर पर चलने वाले जीवन का एहसास कराती रहती है। यही नहीं हम यह भी जान सकते हैं कि समय के उस खंड में सामन्ती व्यवस्था में समाज के विभिन्न वर्गों के रिश्तों की संरचना कैसी थी और किस प्रकार वास्तविकता और चमत्कार के बीच सत्य को पकड़ने का संघर्ष मनुष्य जीवन के लिए महत्वपूर्ण होता है।
राजेन्द्र जी ने अपने लेख में टम बात पर भी बल दिया है खत्री जी के सामने