पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/९६

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समय हाथ लगेगा। मगर ऐसा करने के लिए सबसे पहले सुरंग की ताली अपने कब्जे में कर लेना मुनासिब है, नहीं तो मुझे बिगड़ा हुआ देख जब तक मैं दो-चार औरतों की मुश्कें बाँधूँगा, तब तक सब सुरंग की राह भाग जायँगी। फिर मेरा मतलब, जैसा मैं चाहता हूँ, सिद्ध न होगा।

इन्द्रजीतसिंह ने सुरंग की ताली लेने के लिए बहुत कोशिश की, मगर न ले सके क्योंकि अब वह ताली उस जगह से जहां पहले रहती थी, हटा कर किसी दूसरी जगह रख दी गई थी।

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आपस में लड़ने वाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सुफेदी निकलने के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझ कर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रखना चाहती हैं, बहुत खुश हुआ। कोतवाल साहब के गुमान में भी न था कि वे ऐयारों के फेर में पड़े हैं। उनको इन्द्रजीतसिंह के कैद होने और वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों के यहाँ पहुँचने की खबर ही न थी। वह तो जिस तरह हमेशा रिआया लोगों के घर अकेले पहुँच कर तहकीकात किया करते थे, उसी तरह आज भी सिर्फ दो अर्दली के सिपाहियों को साथ ले इन दोनों ऐयारों के फेर में पड़ घर से निकल पड़े थे।

कोतवाल साहब ने जब माधवी को पहचाना, तो अपने सिपाहियों को उसके सामने ले जाना मुनासिब न समझा और अकेले ही माधवी के पास पहुँचे। देखा कि हकीकत में उन्हीं की तस्वीर सामने रखे माधवी उदास बैठी है।

कोतवाल साहब को देखते ही माधवी उठ खड़ी हुई और मुहब्बत-भरी निगाहों से उनकी तरफ देख कर बोली-

"देखो, मैं तुम्हारे लिए कितनी बेचैन हूँ, पर तुम्हें मेरी जरा भी खबर नहीं!"

कोतवाल-अगर मुझे यकायक इस तरह अपनी किस्मत के जागने की खबर होती तो क्या मैं लापरवाह बैठा रहता? कभी नहीं, मैं तो आप ही दिन-रात आपसे मिलने की उम्मीद में अपना खून सुखा रहा था।

माधवी—(हाथ का इशारा करके) देखो, ये दोनों आदमी बड़े ही बदमाश हैं, इनको यहाँ से चले जाने के लिए कहो तो फिर हमसे-तुमसे बातें होंगी।

इतना सुनते ही कोतवाल साहब ने उन दोनों भाइयों की तरफ, जो हकीकत में भैरोंसिंह और तारासिंह थे, कड़ी निगाह से देखा और कहा, "तुम दोनों अभी-अभी यहाँ से भाग जाओ, नहीं तो बोटी-बोटी काट कर रख दूँगा।"

भैरोंसिंह और तारासिंह वहाँ से चलते बने। इधर चपला, जो माधवी को सूरत बनी हुई थी, कोतवाल को बातों में फँसाये हुए वहाँ से दूर एक गुफा के मुहाने पर ले गई