पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/११३

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अभी नहीं हुए।" कमलिनी फिर शमादान उठाकर उस कोठरी में घूमने और चारों तरफ देखने लगी। पूरब और दक्खिन के कोने में एक लाश छत से लटकती हुई दिखाई पड़ी जिसके गले में फाँसी लगी थी। वह ताज्जुब के साथ शमादान ऊँचा करके उसकी सूरत देखने लगी, जब अच्छी तरह पहचान चुकी तो नफरत के साथ उस लाश पर थूककर अपना मुँह फेर लिया और दूसरी तरफ चली ही थी कि यह आवाज सुनकर ठहर गई और उस तरफ देखने लगी, जिधर से आवाज आई थी। आवाज यह थी––"हाय, मौत को भी मौत आ गई!" उसे ताज्जुब मालूम हुआ कि यह आवाज किधर से आई! वह यह देखने के लिए उस तरफ बढ़ी, जिधर से आवाज आई थी कि शायद कोई सूराख या खिड़की दिखाई दे और आखिर ऐसा ही हआ। दीवार के पास पहुँचते ही एक सूराख ऐसा दिखा जिसमें आदमी की गर्दन वखूबी जा सकती थी। यह टेढ़ा और नीचे की तरफ झुका हुआ सूराख, जिसे किसी कमरे का रोशनदान कहना चाहिए, दीवार के बिल्कुल नीचे की तरफ था।

कमलिनी ने उस सूराख में से झाँककर देखा तो एक छोटे से मगर सजे हुए कमरे में निगाह गई। यह कमरा उस कोठरी से एक खंड नीचे था जिसमें से कमलिनी झाँक रही थीं। उस कमरे में जो कुछ कमलिनी ने देखा, उससे उसके दिल को बड़ा ही सदमा पहुँचा और जब तक वह देखती रही उसकी आँखों से आँसू बराबर जारी रहे।

कमलिनी ने देखा कि एक पलंग पर, जिसके पास ही शमादान जल रहा है, आफत की मारी बेचारी किशोरी पड़ी हुई है। रंज और गम के मारे सुखकर काँटा हो रही है। चेहरे पर मुर्दनी छायी हुई है और कमजोरी की यह अवस्था है कि साँस भी मुश्किल से आती-जाती है। थोड़ी-थोड़ी देर पर उसके होंठ हिलते हैं और धीरे-धीरे कुछ कहती है, मगर जब कहती है तो उसकी आवाज साफ सुनाई देती है। वह कह रही थी––

"हाय, इससे बढ़कर मेरी दुर्दशा और क्या हो सकती है! इन्द्रजीतसिंह, तुम्हारी मुहब्बत में मैं यहाँ तक पहुँच चुकी, कुल में कलंकिनी कहाई, लज्जा को तिलांजलि दे बैठी, और वह सब दुःख झेलने को तैयार हुई, यह सब तुम्हारी बदौलत...

"(थोड़ी देर चुप रहकर) यहाँ तक रोई कि अब आँखों में आँसू भी नहीं रहे। खाना-पीना छोड़ देने पर भी निगोड़ी जान नहीं निकलती। हाय, मौत को भी मौत आ गई! नहीं-नहीं, मौत को मौत नहीं आई, वह देखो, मेरे सामने खड़ा हुआ काल मेरी तरफ देख रहा है। अब कुछ दम की मेहमान हूँ। मैं तो जाती हूँ, मगर अफसोस, अपने प्यारे की जुदाई का रंज और उसकी बेवफाई और बेमुरौवती की शिकायत अपने साथ लिए जाती हैं। हाय, इस समय ऐसा कोई भी नहीं जो मेरी हालत देखे और मेरा हाल उनसे जाकर...

"(थोड़ी देर चुप रहकर) जब उनको मेरी परवाह ही नहीं, तो मेरा हाल कोई उनसे कहकर करेगा ही क्या? उन्होंने तो खुद कहला भेजा है कि मुझे कुछ भी परवाह नहीं। हाय, मैं ऐसी बात कैसे सुन सकी! उसी समय मेरी जान क्यों न निकल गई! नहीं-नहीं, यह सब ऐयारी है, उन्होंने ऐसी बात कभी न कही होगी। पर इससे क्या हो सकता है जब कि दम निकलने में कुछ कसर बाकी नहीं है। देखो-देखो वह काल अब मेरी तरफ