पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१४४

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मैं नहीं कह सकता कि उस आदमी को, जो स्याह कपड़ा ओढ़े मेरे घर से निकला था यह, खबर थी या नहीं कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूँ क्योंकि वह बड़ो बेफिक्री से कदम बढ़ाता हुआ मैदान की तरफ जा रहा था।

थोड़ी दूर जाने के बाद मुझे यह भी मालूम हुआ कि यह आदमी अपनी पीठ पर एक गठरी लादे हुए है जो एक स्याह कपड़े के अन्दर है। अब मुझे विश्वास हो गया कि यह चोर है और इसने जरूर मेरे यहाँ चोरी की है। जी में तो आया कि गुल मचाऊँ जिसमें बहुत से आदमी इकट्ठे होकर उसे गिरफ्तार कर लें, मगर कई बातें सोच कर चुप ही रहा और उसके पीछे-पीछे जाना ही उचित समझा।

घण्टे भर तक बराबर मैं उस आदमी के पीछे-पीछे चला गया, यहाँ तक कि वह शहर के बाहर मैदान में एक ऐसी जगह जा पहुंचा जहाँ इमली के बड़े-बड़े पेड़ इतने ज्यादा लगे हुए थे कि उनके सबब से मामूली से विशेष अंधकार हो रहा था। जब मैं उन घने पेड़ों के बीच पहुँचा तो मालूम हुआ कि यहाँ लगभग दस-बारह आदमियों के और भी हैं जो एक समाधि की बगल में बैठे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वह आदमी उसी जगह पहुँचा और उन लोगों में से दो ने बढ़कर पूछा, "कहो, अबकी दफे किसे लाए?" इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, "नानक की माँ को।"

आप खयाल कर सकते हैं कि इस शब्द को सुन कर मेरे दिल पर कैसी चोट लगी होगी। अब तक तो मैं यही समझ रहा था कि वह चोर मेरे यहाँ से माल-असबाब चुरा कर लाया है जिसकी मुझे विशेष परवाह न थी और मैं उसका पूरा-पूरा हाल जानने की नीयत से चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया था, मगर जब यह मालूम हुआ कि वह कम्बख्त मेरी माँ को चुरा लाया है तो मुझे बड़ा ही रंज हुआ और मैं इस बात पर अफसोस करने लगा कि उसे यहाँ तक आने का मौका क्यों दिया, क्योंकि अब इस समय यहाँ मेरे किये कुछ भी नहीं हो सकता था। चारों तरफ ऐसा सन्नाटा था कि अगर गला फाड़ कर चिल्लाता तो भी मेरी आवाज किसी के कान तक न पहुँचती, इसके अतिरिक्त वे लोग गिनती में भी ज्यादा थे, किसी तरह उनका मुकाबला नहीं कर सकता था, लाचार उस समय बड़ी मुश्किल से मैंने अपने दिल को सम्हाला और चुपचाप एक पेड़ की आड़ में खड़े रहकर उन लोगों की कार्रवाई देखने और यह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।

वह समाधि जो औंधी हाँडी की तरह थी, बहुत बड़ी तथा मजबूत बनी हुई थी और मुझे उसी समय यह भी मालूम हो गया कि उसके अन्दर जाने के लिए कोई रास्ता भी है क्योंकि मेरे देखते-देखते वे सब-के-सब उसी समाधि के अन्दर घुस गए और जब तक मैं रहा, बाहर न निकले।

घण्टे भर तक राह देख कर मैं उस समाधि के पास गया और उसके चारों तरफ घूम-घूम कर अच्छी तरह देखने लगा मगर कोई दरवाजा या छेद ऐसा न दिखाई दिया जिस राह से कोई उसके अन्दर जा सकता और न मैंने उस जगह पर कोई दरवाजे का निशान ही पाया। मैं उस समाधि को अच्छी तरह जानता था, उसके बारे में कभी कोई बुरा खयाल किसी के दिल में न हुआ होगा। देहाती लोग वहाँ तरह-तरह की मन्नतें