पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१४८

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बाप––(ताज्जुब में आकर) क्या वह तुम्हारी माँ नहीं है?

मैं––नहीं।

बाप––आज क्या है, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो? क्या उसने तुम्हें कुछ तकलीफ दी है?

मैं––आप इस जगह मुझसे कुछ भी न पूछिये, निराले में जब मेरी बातें सुनियेगा तो असल भेद मालूम हो जायगा!

इतना सुनते ही मेरे बाप ने घबड़ाकर मेरा हाथ पकड़ लिया और मकान के अपने खास बैठके में ले जाकर दरवाजा बन्द करने के बाद पूछा, "कहो, क्या बात है?" मैंने वे कुल बातें जो देखी-सुनी थीं और जो ऊपर बयान कर चुका हूँ कह सुनाईं जिनके सुनते ही मेरे बाप की अजब हालत हो गयी, चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की निशानी मालूम होने लगी, थोड़ी देर तक चुप रहने और कुछ गौर करने के बाद बोले, "बेशक धोखा हो गया! अब जो गौर करता हूँ तो इस कम्बख्त की बातचीत और चाल-चलन में बेशक बहुत-कुछ फर्क पाता हूँ। मगर अफसोस, तुमने इतने दिनों तक न मालूम क्या समझकर यह बात छिपा रखी और अपनी माँ की तरफ से भी गाफिल रहे! न जाने वह बेचारी जीती भी है या इस दुनिया से ही उठ गयी!"

मैं––जरा-सा गौर करने पर आप खुद समझ सकते हैं कि इस बात को इतने दिनों तक मैं क्यों छिपाये रहा। माँ की तरफ से भी गाफिल न रहा, जहाँ तक हो सका पता लगाने के लिए परेशान हुआ मगर अभी तक कोई अच्छा नतीजा न निकला। यद्यपि मुझे विश्वास है कि वह इस दुनिया में जीती-जागती मौजूद है।

बाप––तुम्हारा खयाल ठीक है और इसका सबूत इससे बढ़कर और क्या होगा कि एक ऐयार उसकी सूरत बनाकर अपना काम निकालना चाहती है और इस घर में अभी तक मौजूद है, जब तक इसका काम न निकलेगा, बेशक उसकी जान बची रहेगी। मगर अफसोस, मैंने बड़ा धोखा खाया और अपने को किसी लायक न रखा। अच्छा यह कहो कि इस समय तुम्हें क्या सूझी जो यह सब कहने के लिए तैयार हो गये?

मैं––खुटका तो बहुत दिनों से लगा हुआ था मगर इस समय कुछ तकरांर की आहट पाकर मैं ऊपर चढ़ गया और बड़ी देर तक छिपकर आप लोगों की बातें सुनता रहा, ज्यादा तो समझ में न आया, मगर इतना मालूम हो गया कि आप उसकी खातिर से राजा वीरेन्द्रसिंह के यहाँ से कोई किताब चुरा लाये हैं और अब कोई काम ऐसा करना चाहते हैं जो आपके लिए बहुत बुरे नतीजे पैदा करेगा। अस्तु, ऐसे समय में चुप रहना मैंने उचित न जाना। अब आप कृपा करके यह कहिए कि वह किताब जो आप चुरा लाये हैं, कैसी है?

बाप––इस समय सब खुलासा हाल कहने का मौका तो नहीं है, परन्तु संक्षेप में कुछ हाल कह तुम्हें होशियार कर देना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि अब मेरी जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। हाँ, अगर यह औरत तुम्हारी माँ होती तो कोई हर्ज न था। वह एक प्राचीन समय की किसी के खून से लिखी हुई किताब है जो राजा वीरेन्द्रसिंह को बिक्रमी तिलिस्म से मिली थी। उस तिलिस्म में स्याह पत्थर के दालान में एक

च॰ स॰-2-9